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Samveda/2

त्वमग्ने यज्ञाना होता वि श्वेषा हितः। देवेभिर्मानुषे जने॥२

Veda : Samveda | Mantra No : 2

In English:

Seer : bharadvaajo baarhaspatyaH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : tvamagne yaj~naanaa.m hotaa vishveShaa.m hitaH . devebhirmaanuShe jane. 2

Component Words :
tvam . agne . yaj~naanaam . hotaa . vishveShaam . hitaH . devebhiH . maanuShe . jane ..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : भरद्वाजो बार्हस्पत्यः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : वह परमात्मा ही सब यज्ञों का निष्पादक है, यह कहते हैं।

पदपाठ : त्वम् । अग्ने । यज्ञानाम् । होता । विश्वेषाम् । हितः । देवेभिः । मानुषे । जने ।२।

पदार्थ : हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम्) आप (विश्वेषाम्) सब (यज्ञानाम्) उपासकों से किये जानेवाले ध्यानरूप यज्ञों के (होता) निष्पादक ऋत्विज् हो, अतः (देवेभिः) विद्वानों के द्वारा (मानुषे) मनुष्यों के (जने) लोक में (हितः) स्थापित अर्थात् प्रचारित किये जाते हो ॥२॥इस मन्त्र की श्लेष द्वारा सूर्य-पक्ष में भी अर्थ-योजना करनी चाहिए। तब परमात्मा सूर्य के समान है, यह उपमा ध्वनित होगी ॥२॥

भावार्थ : जैसे सूर्य सौर-लोक में सब अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, दक्षिणायन, उत्तरायण, वर्ष आदि यज्ञों का निष्पादक है, वैसे ही परमात्मा अध्यात्ममार्ग का अवलम्बन करनेवाले जनों से किये जाते हुए सब आन्तरिक यज्ञों को निष्पन्न करके उन योगी जनों को कृतार्थ करता है और जैसे सूर्य अपनी प्रकाशक किरणों से मनुष्य-लोक में अर्थात् पृथिवी पर निहित होता है, वैसे ही परमात्मा विद्वानों से मनुष्य-लोक में प्रचारित किया जाता है ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : भरद्वाजो बार्हस्पत्यः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : स परमात्मैव सर्वेषां यज्ञानां होतास्तीत्युच्यते।

पदपाठ : त्वम् । अग्ने । यज्ञानाम् । होता । विश्वेषाम् । हितः । देवेभिः । मानुषे । जने ।२।

पदार्थ : हे (अग्ने) परमात्मन् ! त्वम् अतिशयमहिमान्वितः भवान् (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (यज्ञानाम्) उपासकैः क्रियमाणानां ध्यानयज्ञानाम् (होता) निष्पादकः ऋत्विग् असि, अतः (देवेभिः) देवैः, विद्वद्भिः। विद्वांसो हि देवाः। श० ३।७।३।१०। अत्र 'बहुलं छन्दसि' अ० ७।१।१० इति भिस ऐस्भावो न। (मानुषे) मनुष्यसम्बन्धिनि (जने) लोके (हितः) स्थापितः प्रचारितो भवसि। अत्र धा धातोर्निष्ठायां 'दधातेर्हिः' अ० ७।४।४२ इति हिभावः। मन्त्रोऽयं श्लेषेण सूर्यपक्षेऽपि योजनीयः। तथा च परमात्मा सूर्य इवेत्युपमाध्वनिः ॥२॥

भावार्थ : यथा सूर्यः सौरलोके सर्वेषाम् अहोरात्र-पक्ष-मास-ऋत्वयन-संवत्सरादियज्ञानां निष्पादको वर्तते, तथैव परमात्माऽध्यात्ममार्गालम्बिभिर्जनैरनुष्ठीयमानान् सर्वानन्तर्यज्ञान् निष्पाद्य तान् योगिनो जनान् कृतार्थयति। यथा च सूर्यो देवैः प्रकाशकैः स्वकीयैः किरणैर्मानुषे लोके पृथिव्यां निहितो जायते, तथैव परमात्मा देवैर्विद्वद्भिर्मनुष्यलोके प्रचार्यते ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ६।१६।१। सा० १४४७। ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं जगदीश्वरपक्षे व्याख्यातवान्।