Samveda/11
नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः। अमैरमित्रमर्दय॥११
Veda : Samveda | Mantra No : 11
In English:
Seer : aayu~NkShvaahiH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : namaste agna ojase gRRiNanti deva kRRiShTayaH . amairamitramardaya.11
Component Words : namaH. te. agne. ojase . gRRiNanti. deva. kRRiShTayaH. amaiH. amitram.a.mitram. ardaya..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : आयुङ्क्ष्वाहिः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : प्रथम मन्त्र में परमात्मा और राजा की स्तुति करते हुए उनसे प्रार्थना करते हैं।
पदपाठ : नमः। ते। अग्ने। ओजसे । गृणन्ति। देव। कृष्टयः। अमैः। अमित्रम्।अ।मित्रम्। अर्दय।१।
पदार्थ : हे (देव) ज्योतिर्मय तथा विद्या आदि ज्योति के देनेवाले (अग्ने) लोकनायक जगदीश्वर अथवा राजन् ! (कृष्टयः) मनुष्य (ते) आपके (ओजसे) बल के लिए (नमः) नमस्कार के वचन (गृणन्ति) उच्चारण करते हैं, अर्थात् बार-बार आपके बल की प्रशंसा करते हैं। आप (अमैः) अपने बलों से (अमित्रम्) शत्रु को (अर्दय) नष्ट कर दीजिए ॥१॥इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ : हे जगदीश्वर तथा हे राजन् ! कैसा आप में महान् बल है, जिससे आप निःसहायों की रक्षा करते हो और जिस बल के कारण आपके आगे बड़े-बड़े दर्पवालों के भी दर्प चूर हो जाते हैं। आप हमारे अध्यात्ममार्ग में विघ्न उत्पन्न करनेवाले काम, क्रोध आदि षड्रिपुओं को और संसार-मार्ग में बाधाएँ उपस्थित करनेवाले मानव शत्रु-दल को अपने उन बलों से समूल उच्छिन्न कर दीजिए, जिससे शत्रु-रहित होकर हम निष्कण्टक आत्मिक तथा बाह्य स्वराज्य का भोग करें ॥१॥
In Sanskrit:
ऋषि : आयुङ्क्ष्वाहिः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : तत्रादौ परमात्मानं राजानं वा स्तुवन् प्रार्थयते।
पदपाठ : नमः। ते। अग्ने। ओजसे । गृणन्ति। देव। कृष्टयः। अमैः। अमित्रम्।अ।मित्रम्। अर्दय।१।
पदार्थ : हे (देव) ज्योतिर्मय विद्यादिज्योतिष्प्रदायक वा (अग्ने) लोकनायक जगदीश्वर राजन् वा ! (कृष्टयः२) मनुष्याः। कृष्टय इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। (ते) तव (ओजसे) बलाय। ओज इति बलनाम। निघं० २।९ (नमः) नमोवचांसि (गृणन्ति) उच्चारयन्ति। गृ शब्दे, क्र्यादिः। भूयो भूयस्त्वद्बलं प्रशंसन्तीत्यर्थः। त्वम् (अमैः३) तादृशैः स्वकीयैः बलैः। अम गतिशब्दसंभक्तिषु भ्वादिः। 'अमं भयं बलं वा' इति निरुक्तम्। १०।२१ (अमित्रम्) शत्रुम् अर्दय पीडय विनाशय। अर्द हिंसायाम् चुरादिः ॥१॥अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥१॥
भावार्थ : हे जगदीश्वर राजन् वा ! कीदृशं त्वदीयं महद् बलं येन त्वं निःसहायान् रक्षसि, यत्कारणाच्च त्वत्पुरतो दर्पवतामपि दर्पाः संचूर्यन्ते। त्वमस्माकमध्यात्ममार्गे विघ्नान् जनयन्तं कामक्रोधादिषड्रिपुवर्गं लोकमार्गे च बाधा उपस्थापयन्तं मानवं शत्रुदलं तादृशैः स्वकीयैर्बलैः समूलमुच्छिन्धि, येन निःसपत्नाः सन्तो वयमकण्टकमात्मिकं बाह्यं च स्वराज्यं भुञ्जीमहि ॥१॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।७५।१० विरूप ऋषिः। साम० १६४८।२. ‘कृषन्ति विलिखन्ति स्वानि कर्माणि ये ते मनुष्याः' इति ऋ० १।५२।११ भाष्ये द०।३. अमैः अनिष्टैः रोगैर्भयैर्वा इति वि०। बलैः रोगैर्वा। अम रोगे इति भ०। बलैः इति सा०।