Samveda/33
शं नो देवीरभिष्टये शं नो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः॥३३
Veda : Samveda | Mantra No : 33
In English:
Seer : sindhudviipa aambariiShaH trita aaptyo | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : sha.m no deviirabhiShTaye sha.m no bhavantu piitaye . sha.m yorabhi sravantu naH.33
Component Words : sham.naH. deviiH. abhiShTaye. sham. naH .bhavantu .piitaye. sham. yoH. abhi. sravantu. naH..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : सिन्धुद्वीप आम्बरीषः त्रित आप्त्यो | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अग्नि-ज्वालाओं के तुल्य ईश्वरीय दिव्यशक्तियाँ हमारे लिए क्या करें, यह कहते हैं।
पदपाठ : शम्।नः। देवीः। अभिष्टये। शम्। नः ।भवन्तु ।पीतये। शम्। योः। अभि। स्रवन्तु। नः।१३।
पदार्थ : (देवीः) भौतिक अग्नि की दिव्य ज्वालाओं के समान परमात्माग्नि की दिव्य शक्तियाँ (अभिष्टये) अभीष्ट की प्राप्ति के अर्थ (नः) हमारे लिए (शम्) कल्याणकारिणी हों, (पीतये) प्राप्त के रक्षार्थ (नः) हमारे लिए (शम्) कल्याणकारिणी (भवन्तु) हों। (नः) हमारे (शं योः) आगत कष्टों के शमनार्थ तथा अनागत कष्टों को दूर रखने के लिए (अभिस्रवन्तु) चारों ओर प्रवाहित होती रहें ॥१३॥
भावार्थ : अभिष्टि' और 'पीति' शब्दों से क्रमशः योग और क्षेम का ग्रहण होता है। अप्राप्त की प्राप्ति को 'अभिष्टि' या 'योग' कहते हैं और प्राप्त की रक्षा को 'पीति' या 'क्षेम'। परमेश्वर की दिव्य शक्तियाँ हमें योग-क्षेम प्रदान करें, यह अभिप्राय है। साथ ही जिन आपदाओं से ग्रस्त होकर हम पीड़ित होते हैं और जिन अनागत आपदाओं के भय से संत्रस्त होते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि वे हमें धर-दबोचें, वे सब आपत्तियाँ परमेश्वर की दिव्य शक्तियों के प्रभाव से और हमारे पुरुषार्थ से दूर हो जाएँ ॥१३॥
In Sanskrit:
ऋषि : सिन्धुद्वीप आम्बरीषः त्रित आप्त्यो | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अग्नेर्ज्वाला इव परमेश्वरस्य दिव्यशक्तयोऽस्मभ्यं किं कुर्वन्त्वित्याह।
पदपाठ : शम्।नः। देवीः। अभिष्टये। शम्। नः ।भवन्तु ।पीतये। शम्। योः। अभि। स्रवन्तु। नः।१३।
पदार्थ : (देवीः२) भौतिकाग्नेर्देदीप्यमाना ज्वाला इव परमात्माग्नेर्दिव्यशक्तयः। जसि देव्यः इति प्राप्ते 'वा छन्दसि।’ अ० ६।१।१०६ इति नियमेन वैकल्पिकः पूर्वसवर्णदीर्घः। (अभिष्टये) अभीष्टप्राप्तये। इष्टिः इच्छा, इषु इच्छायाम्, क्तिन्। अभि-इष्टि, 'एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्।’ अ० ६।१।९४ वा०, अनेन पररूपम्। (नः) अस्मभ्यम् (शम्) कल्याणकारिण्यः भवन्तु, (पीतये) प्राप्तस्य रक्षणाय च। पा रक्षणे भावे क्तिनि 'घुमास्थागापाजहातिसां' हलि।’ अ० ६।४।६६ इतीत्वम्। (नः) अस्मभ्यम् (शम्) कल्याणकारिण्यः (भवन्तु) जायन्ताम्। किञ्च, (नः) अस्माकम् (शं योः) आगतानां कष्टानां शमनाय, अनागतानां च यावनाय दूरे रक्षणाय। शं योः शमनं च रोगाणां यावनं च भयानाम् इति निरुक्तम्। ४।२१। (अभिस्रवन्तु) सर्वतः प्रवहन्तु ॥१३॥
भावार्थ : अभीष्टिपीतिभ्यां क्रमशो योगक्षेमौ गृह्येते। अप्राप्तस्य प्राप्तिरभीष्टिर्योगो वा, प्राप्तस्य रक्षणं पीतिः क्षेमो वा। परमेश्वरस्य दिव्यशक्तयोऽस्मभ्यं योगक्षेमं प्रयच्छन्त्विति भावः। अपि च याभिरापद्भिर्ग्रस्ता वयं पीड्यामहे, यासां चानागतानामापदां भयात् त्रस्यामस्ताः सर्वा आपदः पारमेश्वरीणां दिव्यशक्तीनां प्रभावादस्मत्पुरुषार्थेन च पूर्णतो निवारिता भवेयुः ॥१३॥
टिप्पणी:१. ऋ० १०।९।४, य० ३६।१२ दध्यङ् आथर्वण ऋषिः अथ० १।६।१ सिन्धुद्वीपः अथर्वा कृतिर्वा ऋषिः। सर्वत्र 'अभिष्टये शन्नो' इत्यत्र 'अभिष्टय आपो' इति पाठः, आपश्च देवताः।२. यत्र 'आपो भवन्तु पीतये' इति पाठः आपश्च देवताः, तत्र 'देवीः' इति 'आपः' इत्यस्य विशेषणम्। अत्र तु अग्निर्देवता। अतः 'देवीः' इति पदेन भौतिकाग्निपक्षे दीप्तिमत्यो ज्वालाः, परमेश्वरपक्षे च दिव्यशक्तयः इत्यर्थो ग्राह्यः। इतरैर्भाष्यकारैस्तु 'आपः' इति पदमध्याहृत्य व्याख्यातम्।