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Samveda/73

अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रतिधेनुमिवायतीमुषासम् । यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सस्रते नाकमच्छ॥७३

Veda : Samveda | Mantra No : 73

In English:

Seer : budhagaviShTiraavaatreyau | Devta : agniH | Metre : triShTup | Tone : dhaivataH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : abodhyagniH samidhaa janaanaa.m prati dhenumivaayatiimuShaasam . yahvaa iva pra vayaamujjihaanaaH pra bhaanavaH sasrate naakamachCha.73

Component Words :
abodhi. agniH. samidhaa . sam.idhaa.janaanaam. prati. dhenum . iva . aayatiim .aa.yatiim. uShaasam . yahvaaH. iva. pra. vayaam. ujjihaanaaH . ut. jihaanaaH. pra.bhaanavaH. sasrate. naakam. achCha..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : बुधगविष्टिरावात्रेयौ | देवता : अग्निः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : प्रथम मन्त्र में उषाकाल में यज्ञाग्नि और परमात्माग्नि को समिद्ध करने का विषय है।

पदपाठ : अबोधि। अग्निः। समिधा । सम्।इधा।जनानाम्। प्रति। धेनुम् । इव । आयतीम् ।आ।यतीम्। उषासम् । यह्वाः। इव। प्र। वयाम्। उज्जिहानाः । उत्। जिहानाः। प्र।भानवः। सस्रते। नाकम्। अच्छ।१।

पदार्थ : प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। (धेनुम् इव) दुधारू गाय के समान (आयतीम्) आती हुई (उषासं प्रति) उषा के काल में (जनानाम्) यजमान-जनों के (समिधा) समिदाधान द्वारा (अग्निः) यज्ञाग्नि (अबोधि) यज्ञवेदि में प्रबुद्ध हुआ है। (वयाम्) शाखा को (उज्जिहानाः) ऊपर ले जाते हुए (यह्वाः इव) विशाल वृक्षों के समान (भानवः) यज्ञाग्नि की ज्वालाएँ (नाकम् अच्छ) सूर्य की ओर (प्र सस्रते) प्रसरण कर रही हैं ॥ द्वितीय—परमात्माग्नि के पक्ष में। (धेनुम् इव) दुधारू गाय के समान (आयतीम्) आती हुई (उषासं प्रति) उषा के काल में (जनानाम्) उपासक जनों के (समिधा) आत्मसमर्पण रूप समिदाधान द्वारा (अग्निः) परमात्माग्नि (अबोधि) हृदय-वेदि में प्रबुद्ध हुआ है। (वयाम्) शाखा को (उज्जिहानाः) ऊपर ले जाते हुए (यह्वाः इव) विशाल वृक्षों के समान (भानवः) परमात्माग्नि के तेज (नाकम् अच्छ) जीवात्मा की ओर (प्र सस्रते) प्रसरण कर रहे हैं ॥१॥इस मन्त्र में यज्ञाग्नि और परमात्माग्नि रूप दो अर्थों के प्रकाशित होने के कारण श्लेषालङ्कार है और 'धेनुम् इव', 'यह्वाः इव' में उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थ : दूध से परिपूर्ण गायों के समान प्रकाश से परिपूर्ण उषाएँ आकाश और भूमि में बिखर गयी हैं। इस शान्तिदायक प्रभात में जैसे अग्निहोत्री लोग यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि को प्रदीप्त करते हैं, वैसे ही अध्यात्मयाजी लोग हृदय में परमात्मा को प्रबुद्ध करते हैं। जैसे विशाल वृक्षों की चोटी की शाखाएँ आकाश की ओर जाती हैं, वैसे ही यज्ञवेदि में प्रज्वलित यज्ञाग्नि की ज्वालाएँ सूर्य की ओर और हृदय में जागे हुए परमात्मा के तेज जीवात्मा की ओर जाते हैं ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : बुधगविष्टिरावात्रेयौ | देवता : अग्निः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अथोषसि यज्ञाग्निपरमात्माग्न्योः समिन्धनविषयमाह।

पदपाठ : अबोधि। अग्निः। समिधा । सम्।इधा।जनानाम्। प्रति। धेनुम् । इव । आयतीम् ।आ।यतीम्। उषासम् । यह्वाः। इव। प्र। वयाम्। उज्जिहानाः । उत्। जिहानाः। प्र।भानवः। सस्रते। नाकम्। अच्छ।१।

पदार्थ : (धेनुम् इव) दोग्ध्रीं गामिव (आयतीम्) आगच्छन्तीम् (उषासम् प्रति२) उषसम् अभिलक्ष्य, उषःकाले इत्यर्थः। उषासम् इत्यत्र 'अन्येषामपि दृश्यते।’ अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः। (समिधा) इध्मेन, आत्मसमर्पणरूपेण समिद्धोमेन वा। आत्मा वा इध्मः। तै० सं० ३।२।१०।३। (अग्निः) यज्ञाग्निः परमात्माग्निर्वा (अबोधि) यज्ञवेद्यां हृदयवेद्यां वा प्रबुद्धो जातः। (वयाम्) शाखाम्। वयाः शाखाः वेतेः, वातायना भवन्ति। निरु० १।७। (प्र उज्जिहानाः३) प्रोद्गमयन्तः। ओहाङ् गतौ, शानच्। (यह्वाः४ इव) महान्तो वृक्षाः इव। यह्व इति महन्नाम। निघं० ३।३। (भानवः) यज्ञवह्नेः ज्वालाः, परमात्माग्नेः तेजोरश्मयो वा (नाकम् अच्छ) सूर्यं जीवात्मानं वा प्रति। नाक इति द्युलोकस्य सूर्यस्य च साधारणं नाम। निघं० १।४। (प्र सस्रते) प्रसरन्ति। प्र पूर्वात् सृ गतौ धातोर्लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने रूपम्, व्यत्ययेनात्मनेपदम् ॥१०॥५अत्र यज्ञाग्निपरमात्माग्निरूपार्थद्वयप्रकाशनाच्छ्लेषालङ्कारः। 'धेनुमिव', 'यह्वा इव' इत्युभयत्र चोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थ : पयस्विन्यो धेनव इव प्रकाशपूर्णा उषस्ते नभसि भुवि च विकीर्णाः सन्ति। अस्मिन् शान्तिदायके प्रभाते यथाऽग्निहोत्रिणो यज्ञवेद्यां यज्ञाग्निं प्रदीपयन्ति, तथाऽध्यात्मयाजिनो हृदि परमात्मानं प्रबोधयन्ति। यथा विशालवृक्षाणां शिखरशाखा आकाशं प्रति गच्छन्ति तथा यज्ञवेद्यां प्रज्वलितस्य यज्ञाग्नेर्ज्वालाः सूर्य प्रति, हृदि समुद्बुद्धस्य परमात्मनस्तेजांसि च जीवात्मानं प्रति प्रयान्ति ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० ५।१।१, य० १५।२४ ऋषिः परमेष्ठी, साम १७४६, अ० १३।२।४६ ऋषिः ब्रह्मा, देवता रोहित आदित्यः। २. उषासम् उषसं प्रति उदयकाले इत्यर्थः—इति वि०। उषःकाले—इति भ०, सा०।३. प्रोज्जिहानाः प्रोद्गमयन्तः—इति भ०। प्रोद्गमयन्तो वृक्षा इव—इति सा०।४. यह्वाः महान्त इव वृक्षाः—इति भ०। महान्तो वृक्षा इव—इति ऋ० ५।१।१ भाष्ये द०।५. दयानन्दर्षिमन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये उपदेश्योपदेशकविषये यजुर्भाष्ये चाग्निविद्याविषये व्याख्यातवान्।