Samveda/120
त्वमिन्द्र बलादधि सहसो जात ओजसः। त्वसन्वृषन्वृषेदसि॥१२०
Veda : Samveda | Mantra No : 120
In English:
Seer : devajaamayaH indramaataraH RRiShikaaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : tvamindra balaadadhi sahaso jaata ojasaH . tva.m sanvRRiShanvRRiShedasi.120
Component Words : tvam. indra. balaat. adhi .sahasaH. jaataH. ojasaH. tvam. san. vRRiShan. vRRiShaa . it. asi..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : देवजामयः इन्द्रमातरः ऋषिकाः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर और राजा की महिमा का वर्णन है।
पदपाठ : त्वम्। इन्द्र। बलात्। अधि ।सहसः। जातः। ओजसः। त्वम्। सन्। वृषन्। वृषा । इत्। असि।६।
पदार्थ : हे (इन्द्र) परमवीर परमैश्वर्यवन् परमात्मन् और राजन् ! (त्वम्) आप (बलात्) अत्याचारियों के वध और सज्जन लोगों के धारण आदि के हेतु बल के कारण, (सहसः) मनोबलरूप साहस के कारण, और (ओजसः) आत्मबल के कारण (अधिजातः) प्रख्यात हो। (सन्) श्रेष्ठ (त्वम्) आप, हे (वृषन्) सुखों के वर्षक ! (वृषा इत्) वृष्टिकर्ता मेघ ही (असि) हो ॥६॥इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है। इन्द्र में वर्षक मेघ का आरोप होने से रूपक है। 'वृष-वृषे' में छेकानुप्रास है ॥६॥
भावार्थ : परमेश्वर और राजा के राक्षसवधादिरूप और पृथिवी, सूर्य आदि लोकों के तथा राष्ट्र के धारणरूप बहुत से बल के कार्य प्रसिद्ध हैं। उनका मनोबल और आत्मबल भी अनुपम है। उनका वृषा (बादल) नाम सार्थक है, क्योंकि वे बादल के समान सबके ऊपर सुख की वर्षा करते हैं। ऐसे अत्यन्त महिमाशाली परमेश्वर और राजा का हमें दिन-रात अभिनन्दन करना चाहिए ॥६॥
In Sanskrit:
ऋषि : देवजामयः इन्द्रमातरः ऋषिकाः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वरस्य नृपतेश्च महिमानमाचष्टे।
पदपाठ : त्वम्। इन्द्र। बलात्। अधि ।सहसः। जातः। ओजसः। त्वम्। सन्। वृषन्। वृषा । इत्। असि।६।
पदार्थ : हे (इन्द्र) परमवीर परमैश्वर्यवन् परमात्मन् राजन् वा ! (त्वम् बलात्) अत्याचारिवधलोकधारणादिहेतोः बलस्य कारणात्, (सहसः) मनोबलात् साहसात्, (ओजसः२) आत्मबलाच्च हेतोः (अधिजातः) प्रख्यातः असि। (सन्३) श्रेष्ठः (त्वम् वृषन्) हे सुखानां वर्षक ! (वृषा इत्) वर्षकः मेघः एव (असि) वर्तसे ॥६॥अत्रार्थश्लेषालङ्कारः। इन्द्रे मेघत्वारोपाद् रूपकम्। 'वृष, वृषे' इत्यत्र च छेकानुप्रासः ॥६॥
भावार्थ : परमेश्वरस्य नृपतेश्च राक्षसवधादिरूपाणि, किञ्च पृथिवीसूर्यादिलोकानां राष्ट्रस्य च धारणरूपाणि बहूनि बलकार्याणि प्रसिद्धानि। तयोः मनोबलं आत्मबलं चापि निरुपमम्। तयोर्वृषेति नाम सार्थकम्, यतो हि तौ पर्जन्यवत् सर्वेषामुपरि सुखवृष्टिं कुरुतः। एतादृशौ परममहिमान्वितौ परमेश्वरराजानावस्माभिरहर्निशमभिनन्दनीयौ ॥६॥
टिप्पणी:१. ऋ० १०।१५३।२, अथ० २०।९३।५। उभयत्र 'सन्' इति नास्ति।२. ओजो नाम बलहेतुः हृदयगतं धैर्यमिति—सा०।३. 'सन्' इति विवरणकारस्य आमन्त्रितत्वेनाभिमतम्—'सन् प्रशस्त' इति। तत्तु चिन्त्यम्, आमन्त्रितस्वराभावात्। सन् श्रेष्ठः—इति भ०, सा०।