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Samveda/135

इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान्। नि यामं चित्रमृञ्जते॥१३५

Veda : Samveda | Mantra No : 135

In English:

Seer : kaNvo ghauraH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : iheva shRRiNva eShaa.m kashaa hasteShu yadvadaan . ni yaama.m chitramRRi~njate.135

Component Words :
iha. iva. shraNva . eShaam . kashaaH. hasteShu . yat . vadaan. ni. yaaman. chitram .RRi~njate. .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : कण्वो घौरः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अब इन्द्र के सहायक मरुतों का वर्णन करते हैं। यहाँ यद्यपि इन्द्र के सहायक मरुतों की स्तुति है, तथापि सैनिकों की स्तुति से सेनापति की ही स्तुति मानी जाती है, इस न्याय से देवता इन्द्र माना गया है। ऋग्वेद में इस मन्त्र के देवता साक्षात् ‘मरुतः’ ही है। इन्द्र से शरीर का सम्राट् जीवात्मा और राष्ट्र का सम्राट् राष्ट्रपति गृहीत होता है। जीवात्मा रूप इन्द्र के सहायक मरुत् प्राण हैं और राष्ट्रपति रूप इन्द्र के सहायक मरुत् सैनिक हैं, यह समझना चाहिए ॥

पदपाठ : इह। इव। श्रण्व । एषाम् । कशाः। हस्तेषु । यत् । वदान्। नि। यामन्। चित्रम् ।ऋञ्जते। १।

पदार्थ : प्रथम—सैनिकों के पक्ष में। (एषाम्) इन सैनिकों के (हस्तेषु) हाथों में, युद्धकाल में (यत्) जो (कशाः) चाबुकें (वदान्) बोलती हैं, वह इनका शब्द (इह इव) मानो यहीं, युद्ध से भिन्न स्थल में भी (शृण्वे) मैं सुन रहा हूँ। यह सैनिकों का गण (यामन्) संग्राम में (चित्रम्) अद्भुत (निऋञ्जते) प्रसाधन करता है ॥वेद में सैनिकों का वेशप्रसाधन इस रूप में वर्णित हुआ है—“तुम्हारे कंधों पर ऋष्टियाँ हैं, पैरों में पादत्राण हैं, वक्षःस्थलों पर सोने के तमगे हैं, तुम रथ पर शोभायमान हो। तुम्हारी बाहुओं में अग्नि के समान चमकनेवाले विद्युदस्त्र हैं, सिरों पर सुनहरी पगड़ियाँ हैं। ऋ० ५।५४।११, तुम उत्कृष्ट हथियारों से युक्त हो, गतिमान् हो, उत्कृष्ट स्वर्णालङ्कार धारण किये हो। ऋ० ७।५६।११।'' द्वितीय—प्राणों के पक्ष में। (एषाम्) इन प्राणों के (हस्तेषु) पूरक-कुम्भक क्रियारूप हाथों में (यत्) जो (कशाः) कानों से न सुनायी देनेवाली सूक्ष्म वाणियों (वदान्) ध्वनित होती हैं, उस आवाज को (इह इव) मानो यहीं, प्राणाभ्यास से अतिरिक्त दशा में भी (शृण्वे) सुन रहा हूँ। यह प्राणगण (यामन्) अभ्यास मार्ग में (चित्रम्) अद्भुत रूप से (निऋञ्जते) प्राणायामाभ्यासी योगी को योगैश्वर्यों से अलंकृत कर देता है ॥१॥इस मन्त्र में भूतकाल की वस्तु को वर्तमान काल में प्रत्यक्ष घटित के समान वर्णन करने के कारण भाविक अलङ्कार है। सैनिक तथा प्राण इन दो अर्थों को अभिहित करने से श्लेष भी है ॥१॥

भावार्थ : जैसे राजा के सहायक सैनिक लोग राष्ट्र की रक्षा करते हैं, वैसे ही योगी के सहायक प्राण योगी के योग की रक्षा करते हैं। युद्धों में शत्रुओं के सम्मुख सैनिकों की चाबुकें आवाज करती हैं, उस दृश्य को जिन्होंने देखा होता है, उससे चमत्कृत होने के कारण युद्ध से भिन्न स्थलों में भी उन्हें ऐसा लगता है कि वे आवाजें सुनायी दे रही हैं। सैनिकों का वीरोचित वेश-विन्यास भी अद्भुत ही प्रतीत होता है। प्राण भी योगियों के सैनिक ही हैं, जो शरीर में उत्पन्न सब दोषों को बाहर निकाल देते हैं, इन्द्रियों को निर्मल करते हैं और योगैश्वर्य की प्राप्ति के प्रयास को सफल बनाते हैं ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : कण्वो घौरः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथेन्द्रस्य सहाया मरुतो वर्ण्यन्ते।अस्मिन् मन्त्रे यद्यपि इन्द्रस्य सहाया मरुतः स्तूयन्ते तथापि सैनिकानां स्तुत्या सेनापतिरेव स्तुतो भवतीति न्यायेनेन्द्रो देवता। ऋग्वेदे त्वस्य मन्त्रस्य (ऋ० १।३७।३) मरुत एव देवताः। इन्द्रश्च शरीरस्य सम्राट् जीवात्मा, राष्ट्रस्य सम्राट् राष्ट्रपतिश्च। जीवात्मनः सहाया मरुतः प्राणाः, राष्ट्रपतेश्च सहाया मरुतः सैनिका इति बोध्यम्।

पदपाठ : इह। इव। श्रण्व । एषाम् । कशाः। हस्तेषु । यत् । वदान्। नि। यामन्। चित्रम् ।ऋञ्जते। १।

पदार्थ : प्रथमः—सैनिकपक्षे। (एषाम्) एतेषां मरुतां सैनिकानां (हस्तेषु) पाणिषु, युद्धकाले (यत् कशाः) प्रतोदाः (वदान्) वदन्ति नदन्ति, ध्वनिं कुर्वन्ति। वद धातोर्लेटि 'लेटोऽडाटौ' अ० ३।४।९४ इत्याट् 'इतश्च लोपः परस्मैपदेषु' अ० ३।४।९७ इत्यनेन अन्ति इत्यस्य इकारलोपः। ततश्च संयोगान्ततकारलोपे रूपम्। तत् तेषां नदनम् (इह इव२) अत्र इव, अयुद्धस्थलेष्वपीति भावः। (शृण्वे३) शृणोमि। आत्मनेपदम् छान्दसम्। एष मरुद्गणः सैनिकानां समाजः (यामन्४) यामनि संग्रामे। यान्ति आक्रामन्ति परस्परं योद्धारो यस्मिन् स यामा, तस्मिन्। या धातोरौणादिको मनिन् प्रत्ययः। 'सुपां सुलुक्०' अ० ७।१।३९ इति ङेर्लुक्। (चित्रम्) अद्भुतं यथा स्यात् तथा (निऋञ्जते) प्रसाध्नोति, अलङ्करोत्यात्मानम्। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। निरु० ६।२१।मरुतां सैनिकानां वेशप्रसाधनमेवं वर्णयति श्रुतिः—“अंसे॑षु व ऋ॒ष्टयः॑ प॒त्सु खा॒दयो॒ वक्षः॑सु रु॒क्मा म॑रुतो॒ रथे॒ शुभः॑। अ॒ग्निभ्रा॑जसो वि॒द्युतो॒ गभ॑स्त्योः॒ शिप्राः॑ शी॒र्षसु॒ वित॑ता हिर॒ण्ययीः॑ ॥” ऋ० ५।५४।११। स्वा॒यु॒धास॑ इ॒ष्यिणः॑ सुनि॒ष्का उ॒त स्व॒यं त॒न्वःशुम्भ॑मानाः ॥ ऋ० ७।५६।११ इति।अथ द्वितीयः—प्राणपक्षे। (एषाम्) एतेषां मरुतां प्राणानाम् (हस्तेषु) हस्तोपलक्षितेषु पूरककुम्भकादिविधिषु (यत् कशाः) अकर्णगोचराः सूक्ष्मा वाचः। कशेति वाङ्नाम। निघं० १।११। (वदान्) ध्वनन्ति, तद् ध्वननम् (इह इव) अत्र इव, अनभ्यासदशायामपीत्यर्थः (शृण्वे) शृणोमि। एष मरुतां प्राणानां गणः (यामन्) अभ्यासमार्गे। यान्ति अस्मिन्निति यामा मार्गः। (चित्रम्) अद्भुतम् (निऋञ्जते) प्रसाधयति अलङ्करोति योगैश्वर्यैः प्राणायामाभ्यासिनं साधकम् ॥१॥५अस्मिन् मन्त्रे भूतस्य वस्तुनः प्रत्यक्षवद् वर्णनाद् भाविकालङ्कारः६। सैनिकप्राणरूपार्थद्वयप्रकाशनाच्च श्लेषः ॥१॥

भावार्थ : यथा राज्ञः सहायकाः सैनिका राष्ट्रं रक्षन्ति, तथैव योगिनः सहायकाः प्राणा योगिनो योगं रक्षन्ति। युद्धेषु शत्रूणां पुरतः सैनिकानां कशा ध्वनन्ति, तद् दृश्यं यैः साक्षात्कृतं भवति, तच्चमत्कृतास्ते, युद्धेतरस्थलेष्वपि मन्यन्ते यदत्रापि तेषां कशाः शब्दायन्त इव। सैनिकानां वीरोचितो वेशविन्यासोऽप्यद्भुत इव प्रतिभाति। प्राणा अपि योगिनां सैनिका एव, ये शरीरोत्पन्नं दोषजातं बहिर्निष्कासयन्ति, इन्द्रियाणि निर्मलयन्ति, योगैश्वर्यप्राप्तिप्रयासं च सफलयन्ति ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।३७।३, देवता मरुतः।२. इव शब्द एवार्थे—इति वि०। इव शब्द उपमानार्थः सम्प्रत्यर्थोऽवधारणार्थः पदपूरणार्थश्च भवति। अत्र उपमानार्थव्यतिरिक्तानां त्रयाणामन्यतमो ग्राह्यः—इति भ०।३. शृण्वे श्रूयते—इति वि०, भ०। शृणोति—इति सा०।४. यामन् संग्रामे—इति सा०।५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं वायुपक्षे व्याख्यातः।६. प्रत्यक्षा इव यद्भावाः क्रियन्ते भूतभाविनः, तद् भाविकम्। का० प्र० १०।११४ इति तल्लक्षणात्।