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Samveda/137

समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः। समुद्रायेव सिन्धवः॥१३७

Veda : Samveda | Mantra No : 137

In English:

Seer : vatsaH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : samasya manyave visho vishvaa namanta kRRiShTayaH . samudraayeva sindhavaH.137

Component Words :
sam . asya .manyave. vishaH. vishvaaH . namanta . kRRiShTayaH. samudraaya . sam. udraaya. iva. sindhavaH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : वत्सः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मा के मन्यु के संमुख सब झुकते हैं।

पदपाठ : सम् । अस्य ।मन्यवे। विशः। विश्वाः । नमन्त । कृष्टयः। समुद्राय । सम्। उद्राय। इव। सिन्धवः।

पदार्थ : (अस्य) इस परमैश्वर्यवान् पराक्रमशाली इन्द्र परमेश्वर के (मन्यवे) अन्याय, पाप अदि को सहन न करनेवाले तेज के लिए अर्थात् उस तेज को पाने के लिए (विश्वाः) सब (कृष्टयः) कृषि करनेवाली, अर्थात् मनोभूमि में सद्गुणरूप बीजों को बोनेवाली (विशः) प्रजाएँ, (सं नमन्त) परमेश्वर के प्रति नत हो जाती हैं, (समुद्राय) समुद्र को प्राप्त करने लिए (सिन्धवः इव) जैसे नदियाँ नत होती हैं अर्थात् नीचे की ओर बहती हैं ॥३॥इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ : मन्यु उस मानसिक तेज को कहते हैं, जिसके कारण कोई अधर्म, दुराचार, पाप आदि को सहन नहीं कर सकता। इन्द्र नामक परमेश्वर उस मन्यु का आदर्श है। मन्यु के खजाने उस परमेश्वर के मन्यु को प्राप्त करने के लिए नम्रतापूर्वक सबको यत्न करना चाहिए ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : वत्सः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : परमात्मनो मन्यवे सर्वे संनमन्तीत्याह।

पदपाठ : सम् । अस्य ।मन्यवे। विशः। विश्वाः । नमन्त । कृष्टयः। समुद्राय । सम्। उद्राय। इव। सिन्धवः।

पदार्थ : (अस्य) इन्द्रस्य परमैश्वर्यवतः पराक्रमशालिनः परमेश्वरस्य (मन्यवे) अन्यायपापादीन् असहिष्णवे तेजसे, तत् तेजः प्राप्तुमित्यर्थः (विश्वाः) सर्वाः (कृष्टयः) कृषिकर्मसंलग्नाः, मनोभूमौ सद्गुणरूपबीजानां वप्त्र्यः (विशः२) प्रजाः। कृष्टयः, विशः इत्युभयमपि मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। (सं नमन्त) परमेश्वरं प्रति संनमन्ति प्रह्वीभवन्ति। नमन्त अनमन्त। सामान्यकाले लङ्। आत्मनेपदं छान्दसम्। 'बहुलं छान्दस्यमाङ्योगेऽपि।’ अ० ६।४।७५ इत्यडागमो न। (समुद्राय) समुद्रं प्राप्तुं (सिन्धवः इव) स्यन्दनशीला नद्यो यथा नमन्ति, नीचैर्भवन्ति, निम्नाभिमुखं प्रवहन्ति इत्यर्थः ॥३॥अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थ : मन्युर्नाम तन्मानसं तेजो यस्मात् कश्चिदधर्मदुराचारपापादीनि न सोढुं शक्नोति। इन्द्राख्यः परमेश्वरः खलु तस्य मन्योरादर्शः। मन्युनिधेस्तस्य मन्युं प्राप्तुं नम्रतया सर्वैर्यत्नो विधेयः ॥३॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।६।४, अथ० २०।१०७।१, साम० १६५१।२. विशः। यद्यपि विश इति मनुष्यनाम तथापि कृष्टय इत्यनेन पौनरुक्त्यप्रसङ्गात् क्रियानिमित्तं द्रष्टव्यम्। विष्लृ व्याप्तौ इत्यस्येदं रूपम्। स्तुतिभिर्हविर्भिश्च व्याप्तारः....कृष्टयः यजमानमनुष्या इत्यर्थः—इति वि०। अस्माभिस्तु 'कृष्टयः' इति विशेषणं, 'विशः' इति च विशेष्यं स्वीकृतम्।