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Samveda/158

इन्द्राय मद्वने सुतं परि ष्टोभन्तु नो गिरः। अर्कमर्चन्तु कारवः॥१५८

Veda : Samveda | Mantra No : 158

In English:

Seer : shrutakakShaH sukakSho vaa aa~NgirasaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : indraaya madvane suta.m pari ShTobhantu no giraH . arkamarchantu kaaravaH.158

Component Words :
indraaya. madvane .sutam. pari. stobhantu .naH .giraH. arkam. archantu .kaaravaH ..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा की अर्चना का विषय है।

पदपाठ : इन्द्राय। मद्वने ।सुतम्। परि। स्तोभन्तु ।नः ।गिरः। अर्कम्। अर्चन्तु ।कारवः ।४।

पदार्थ : (मद्वने) आनन्दमय (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् परमात्मा के लिए (सुतम्) अभिषुत भक्तिरूप सोमरस को (नः) हमारी (गिरः) वाणियाँ (परिष्टोभन्तु) तरंगित करें। (अर्कम्) उस अर्चनीय देव की (कारवः) अन्य स्तोता जन भी (अर्चन्तु) मिलकर अर्चना करें ॥४॥

भावार्थ : आनन्द प्राप्त करने की कामनावाला मैं प्रेमरस से परिप्लुत हृदयवाला होकर परमानन्दमय परमात्मा के लिए जिन भक्तिरसों को प्रवाहित कर रहा हूँ, उनमें मेरी स्तुति-वाणियाँ मानो तरंगें उत्पन्न कर रही हैं। अन्य स्तोता जन भी उसी प्रकार परमात्मा की अर्चना करें, जिससे सारा ही वातावरण भक्तिमय और संगीत से तरंगित हो जाए ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनः परमात्मर्चनविषयमाह।

पदपाठ : इन्द्राय। मद्वने ।सुतम्। परि। स्तोभन्तु ।नः ।गिरः। अर्कम्। अर्चन्तु ।कारवः ।४।

पदार्थ : (मद्वने) आनन्दमयाय। माद्यतीति मद्वा, तस्मै। मदी हर्षे धातोः 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते' अ० ३।२।७५ इति क्वनिप्। (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते परमात्मने (सुतम्) अभिषुतं भक्तिरूपं सोमरसम् (नः) अस्माकम् (गिरः) वाचः (परिष्टोभन्तु) परिवेल्लयन्तु, तरङ्गयन्तु। स्तोभतिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। अर्चनं चात्र तरङ्गणम्। (अर्कम्) अर्चनीयं देवम्। अर्को देवो भवति, यदेनमर्चन्ति। निरु० ५।५। (कारवः) अन्येऽपि स्तोतारः। कारुरिति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६। कारुः कर्ता स्तोमानाम्। निरु० ६।५। (अर्चन्तु) संभूय स्तुवन्तु ॥४॥

भावार्थ : आनन्दं प्राप्तुकामोऽहं प्रेमरसपरिप्लुतहृदयः परमानन्दमयाय परमात्मने यान् भक्तिरसान् प्रवाहयामि तेषु मदीयाः स्तुतिवाचस्तरङ्गानिवोत्पादयन्ति। अन्येऽपि स्तोतारस्तथैव परमात्मानमर्चन्तु, येन सर्वमपि वातावरणं भक्तिमयं संगीतैस्तरङ्गितं च सम्पद्येत ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।९२।१९, अथ० २०।११०।१, उभयत्र ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। साम० ७२२।