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Samveda/174

अस्ति सोमो अय सुतः पिबन्त्यस्य मरुतः। उत स्वराजो अश्विना॥१७४

Veda : Samveda | Mantra No : 174

In English:

Seer : binduH puutadakSho vaa aa~NgirasaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : asti somo aya.m sutaH pibantyasya marutaH . uta svaraajo ashvinaa.174

Component Words :
asti. somaH. ayam. sutaH .pibanti .asya .marutaH. uta. svaraajaH . sva . raajaH. ashvinaa.. aapapada.mjii dashati..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : बिन्दुः पूतदक्षो वा आङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि कौन सोम का पान करते हैं।

पदपाठ : अस्ति। सोमः। अयम्। सुतः ।पिबन्ति ।अस्य ।मरुतः। उत। स्वराजः । स्व । राजः। अश्विना।१०। आ.३२.प.१३.पदं.१३४.जी. दशति।८।

पदार्थ : हे मेरे आत्मारूप इन्द्र ! (अयम्) यह (सोमः) भक्तिरस, ज्ञानरस, कर्मरस वीरतारस या सेवा आदि का रस (सुतः) अभिषुत (अस्ति) है। (मरुतः) शरीर में प्राण तथा राष्ट्र में वीर क्षत्रिय जन (उत) और (स्वराजः) शरीर में अपने तेज से शोभायमान मन, बुद्धि, चित और अहंकार तथा राष्ट्र में अपने ब्रह्मवर्चस से देदीप्यमान ब्राह्मणजन और (अश्विना) शरीर में अपने-अपने विषय में व्याप्त होनेवाले ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय तथा राष्ट्र में कृषि-व्यापार एवं शिल्प में व्याप्त होनेवाले वैश्य और शिल्पकार लोग (अस्य) इस पूर्वोक्त सोम रस का (पिबन्ति) यथायोग्य पान करते हैं ॥१०॥इस मन्त्र मेंश्लेष अलङ्कार है॥१०॥

भावार्थ : शरीर में मन, बुद्धि, आत्मा, प्राण एवं इन्द्रिय रूप देव तथा राष्ट्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शिल्पी रूप देव यथायोग्य भक्ति, ज्ञान, कर्म, वीरता, सेवा आदि के सोमरसों का पान करके ही जीवन-संग्राम में सफल होते हैं ॥१०॥इस दशति में इन्द्रनामक परमेश्वर के प्रति सोम अभिषुत करने का, परमेश्वर की महिमा का और उससे समृद्धि, मेधा आदि की याचना का वर्णन होने से और परमेश्वर की अर्चना के लिए प्रेरणा होने से तथा उसके अधीन रहनेवाले अन्य शारीरिक एवं राष्ट्रिय देवों के सोमपान का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥द्वितीय—प्रपाठक में द्वितीय—अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥द्वितीय—अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥


In Sanskrit:

ऋषि : बिन्दुः पूतदक्षो वा आङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ के सोमं पिबन्तीत्याह।

पदपाठ : अस्ति। सोमः। अयम्। सुतः ।पिबन्ति ।अस्य ।मरुतः। उत। स्वराजः । स्व । राजः। अश्विना।१०। आ.३२.प.१३.पदं.१३४.जी. दशति।८।

पदार्थ : इन्द्रदेवताकत्वाद् ऋचः 'हे इन्द्र' इति सम्बोधनीयम्। हे इन्द्र मदीय आत्मन् ! (अयम्) एषः (सोमः) भक्तिरसः, ज्ञानरसः, कर्मरसः, वीरतारसः, सेवारसो वा (सुतः) अभिषुतः (अस्ति) वर्तते। (मरुतः) शरीरे प्राणाः राष्ट्रे च वीरक्षत्रियाः, (उत) अपि च (स्वराजः) स्वतेजसा राजन्ते इति स्वराजः, शरीरे मनोबुद्धिचित्ताहंकाराः, राष्ट्रे च स्वकीयब्रह्मवर्चसेन देदीप्यमानाः ब्राह्मणाः, (अश्विना) अश्विनौ, शरीरे स्वस्वविषयव्यापिनौ ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ, राष्ट्रे कृषिव्यापारशिल्पव्यापिनौ वैश्यशिल्पकारौ च (अस्य) पूर्वोक्तस्य रसस्य (पिबन्ति) यथायोग्यं पानं कुर्वन्ति ॥१०॥अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१०॥

भावार्थ : शरीरे मनोबुद्ध्यात्मप्राणेन्द्रियरूपा राष्ट्रे च ब्रह्मक्षत्रियविट्शिल्परूपा देवा यथायोग्यं भक्तिज्ञानकर्मवीरतासेवादिसोमरसानां पानं कृत्वैव जीवनसंग्रामे सफला जायन्ते ॥१०॥अत्रेन्द्राख्यं परमेश्वरं प्रति सोमाभिषवणात्, तन्महत्त्ववर्णनात्, ततः समृद्धिमेधादिप्रार्थनात्, तदर्चनार्थं प्रेरणात्, तदधीनानाम् इतरेषां दैहिकराष्ट्रियदेवानां चापि सोमपानवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थ्येन सह संगतिरस्तीति विजानीत ॥इति द्वीतीये प्रपाठके द्वितीयार्धे तृतीया दशतिः।इति द्वितीयाध्याये षष्ठः खण्डः।

टिप्पणी:१. ऋ० ८।९४।४, साम० १७८५