Samveda/187
इमास्त इन्द्र पृश्नयो घृतं दुहत आशिरम्। एनामृतस्य पिप्युषीः॥१८७
Veda : Samveda | Mantra No : 187
In English:
Seer : vatsaH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : imaasta indra pRRishnayo ghRRita.m duhata aashiram . enaamRRitasya pipyuShiiH.187
Component Words : imaaH. te. indra .pRRishnayaH. ghRRitam. duhate. aashiram.aa.shiram. enaam. RRitasya. pipyuShiiH ..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : वत्सः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अगले मन्त्र में इन्द्र की पृश्नियाँ क्या करती हैं, इसका वर्णन है।
पदपाठ : इमाः। ते। इन्द्र ।पृश्नयः। घृतम्। दुहते। आशिरम्।आ।शिरम्। एनाम्। ऋतस्य। पिप्युषीः ।३।
पदार्थ : प्रथम—यज्ञ के पक्ष में। हे (इन्द्र) गोपालक यजमान ! (ऋतस्य) यज्ञ की (पिप्युषीः) बढ़ानेवाली (इमाः) ये (ते) तेरी (पृश्नयः) यज्ञ के उपयोग में आनेवाली अनेक रंगोंवाली गायें (घृतम्) घी और (एनाम् आशिरम्) इस दूध को (दुहते) प्रदान करती हैं ॥द्वितीय—अध्यात्म-पक्ष में। हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (ऋतस्य) सत्य का (पिप्युषीः) पान करानेवाली (इमाः) ये (पृश्नयः) वेद-माताएँ (ते) तेरे लिए (घृतम्) तेज-रूप घी को अर्थात् ब्रह्मवर्चस को और (एनाम् आशिरम्) इस परिपक्व आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, विद्या आदि के दूध को (दुहते) प्रदान करती हैं ॥तृतीय—वर्षा के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (इमाः) ये (ते) आपकी रची हुई (पृश्नयः) रंग-बिरंगी मेघमालाएँ (आशिरम्) सूर्य के ताप से भाप बने हुए (घृतम्) जल को (दुहते) बरसाती हैं और (एनाम्) इस भूमि को (ऋतस्य) वृष्टिजल का (पिप्युषीः) पान करानेवाली होती हैं ॥३॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ : जैसे यजमान की गायें यज्ञार्थ घी और दूध देती हैं, मेघमालाएँ खेती आदि के लिए वर्षाजल-रूप दूध बरसाती हैं, वैसे ही वेद-माताएँ जीव के लिए ब्रह्मवर्चस-रूप घी और आयु-प्राण आदि रूप दूध देती हैं ॥३॥
In Sanskrit:
ऋषि : वत्सः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अथेन्द्रस्य पृश्नयः किं कुर्वन्तीत्याह।
पदपाठ : इमाः। ते। इन्द्र ।पृश्नयः। घृतम्। दुहते। आशिरम्।आ।शिरम्। एनाम्। ऋतस्य। पिप्युषीः ।३।
पदार्थ : प्रथमः—यज्ञपरः। हे (इन्द्र) गोपालक (यजमान) ! यजमानो वै स्वे यज्ञ इन्द्रः। श० ८।५।३।८। (ऋतस्य) यज्ञस्य। 'ऋतस्य योगे यज्ञस्य योगे' इति निरुक्तम्। ६।२२। (पिप्युषीः) पिप्युष्यः वर्धयित्र्यः। ओप्यायी वृद्धौ धातोर्लिटः क्वसौ 'लिड्यङोश्च।’ अ० ६।१।२९ इति प्यायः पीभावे स्त्रियरूपम्। (इमाः) एताः (ते) तव (पृश्नयः२) नानावर्णा धर्मदुहो गावः (घृतम्) आज्यम्, (एनाम् आशिरम्३) एतत् पयश्च। (आशीः) पयोनाम 'इन्द्रा॑य॒ गाव॑ आ॒शिरं॑ दु॒दु॒ह्रे' ॥ ऋ० ८।६९।६ इति प्रामाण्यात्। 'आशीराश्रयणाद् वा आश्रपणाद् वा' इति निरुक्तम्। ६।८। (दुहते) प्रयच्छन्ति ॥४अथ द्वितीयः—अध्यात्मपरः। हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (ऋतस्य) सत्यस्य (पिप्युषीः) पाययित्र्यः। पीङ् पाने धातोर्लिटि क्वसौ रूपम्। (इमाः) एताः (पृश्नयः) वेदमातरः (ते) तुभ्यम् (घृतम्) तेजोरूपम् आज्यम्, ब्रह्मवर्चसमित्यर्थः। तेजो वै घृतम्। तै० सं० २।२।९।६। (एनाम् आशिरम्) एतत् परिपक्वम् आयुष्प्राणप्रजापशुकीर्तिविद्यादिरूपं दुग्धं च (दुहते) प्रयच्छन्ति। किं तावद् वेदमातॄणां दुग्धमिति स्वयमेव वर्णयति श्रुतिः—“स्तु॒ता मया॑ वर॒दा वेद॑मा॒ता प्रचो॑दयन्तां पावमा॒नी द्वि॒जाना॑म्। आयुः॑ प्रा॒णं प्र॒जां प॒शुं की॒र्तिं द्रवि॑णं ब्रह्मवर्च॒सम्। मह्यं॑ द॒त्त्वा व्र॑जत ब्रह्मलो॒कम्।” अथ० १९।७१ इति ॥अथ तृतीयः—वृष्टिपरः। हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (इमाः) एताः (ते) तव, त्वद्रचिता इत्यर्थः (पृश्नयः) नानावर्णा मेघमालाः (आशिरम्) परिपक्वं, सूर्यतापेन वाष्पीभूतम्। अत्र आङ्पूर्वः श्रीञ् पाके धातुर्बोध्यः। (घृतम्) उदकम्। घृतम् इत्युदकनाम, जिघर्तेः सिञ्चतिकर्मणः। निरु० ७।२४। (दुहते) वर्षन्ति, किञ्च (एनाम्) एतां भूमिम् (ऋतस्य) उदकस्य। ऋतमित्युदकनाम। निघं० १।१२। (पिप्युषीः) पाययित्र्यः, भवन्तीति शेषः ॥३॥अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
भावार्थ : यथा यजमानस्य गावो यज्ञार्थं घृतं पयश्च दुहन्ति, मेघमालाः कृष्याद्यर्थं वृष्टिजलरूपं पयो दुहन्ति, तथैव वेदमातारो जीवाय ब्रह्मवर्चसरूपं घृतम् आयुष्प्राणादिरूपं पयश्च प्रयच्छन्ति ॥३॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।६।१९।२. पृश्नयो गावः—इति भ०। प्राष्टवर्णा गावः—इति सा०। स्तुतयः—इति वि०।३. सोममिश्रं दधि आशिरम्—इति वि, भ०। एनाम् आशिरम् आश्रयणद्रव्यं पयः—इति सा०।४. एनां भूमिम् ऋतस्य ऋतेन उदकेन पिप्युषीः पूरयन्त्यः यज्ञसाधनद्वारेण वृष्टिम् उत्पादयन्त्यः—इति भा०।