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Samveda/191

आ याहि सुषुमा हि त इन्द्र सोमं पिबा इमम्। एदं बर्हिः सदो मम॥१९१

Veda : Samveda | Mantra No : 191

In English:

Seer : irimbiThiH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : aa yaahi suShumaa hi ta indra soma.m pibaa imam . eda.m barhiH sado mama.191

Component Words :
aa. yaahi .suShuma. hi .te. indra. somam. pibaa .ima.m. aa.idam. barhiH. sadaH. mama..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : इरिम्बिठिः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में इन्द्र को सोमपानार्थ बुलाया जा रहा है।

पदपाठ : आ। याहि ।सुषुम। हि ।ते। इन्द्र। सोमम्। पिबा ।इमं। आ।इदम्। बर्हिः। सदः। मम।७।

पदार्थ : (आयाहि) आइए, (ते) आपके लिए, हमने (सुषुम हि) सोमरस को अभिषुत किया है, अर्थात् श्रद्धा, ज्ञान, कर्म, उपासना आदि के रस को निष्पादित किया है। हे (इन्द्र) परमात्मन्, राजन्, आचार्य, अतिथिप्रवर ! (इमम्) इस हमारे द्वारा समर्पित किए जाते हुए (सोमम्) श्रद्धा, ज्ञान, कर्म, उपासना, राजदेय कर, सोम ओषधि आदि के रस को (पिब) पीजिए। (इदम्) इस (मम) मेरे (बर्हिः) हृदयासन, राज्यासन अथवा कुशा के आसन पर (आ सदः) बैठिए ॥७॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥

भावार्थ : सब मनुष्यों को चाहिए कि वे हृदय में परमात्मा को प्रकाशित कर उसकी पूजा करें और राजा, आचार्य, उपदेशक, संन्यासी आदि को बुलाकर यथायोग्य उनका सत्कार करें ॥७॥


In Sanskrit:

ऋषि : इरिम्बिठिः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथेन्द्रः सोमरसं पातुमाहूयते।

पदपाठ : आ। याहि ।सुषुम। हि ।ते। इन्द्र। सोमम्। पिबा ।इमं। आ।इदम्। बर्हिः। सदः। मम।७।

पदार्थ : (आयाहि) आगच्छ, (ते) त्वदर्थम्, वयम् (सुषुम हि) सोमम् अभिषुतवन्तः किल, श्रद्धाज्ञानकर्मोपासनादिरसं निष्पादितवन्तः इत्यर्थः। षुञ् अभिषवे, लिट्, 'सुषुविम' इति प्राप्ते इडभावश्छान्दसः। हे (इन्द्र) परमात्मन्, राजन्, आचार्य, अतिथिप्रवर वा ! (इमम्) एतं समर्प्यमाणम् (सोमम्) श्रद्धाज्ञानकर्मोपासनाराजदेयकरसोमौषधिरसादिकम् (पिब) आस्वादय। संहितायां 'द्व्यचोऽतस्तिङः।' अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। (इदम्) एतत् (मम) मदीयम् (बर्हिः) हृदयासनं, राज्यासनं, दर्भासनं वा (आ सदः२) आसीद। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु, लोडर्थे लुङि 'बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि।' अ० ६।४।७५ इत्यडागमो न ॥७॥अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥

भावार्थ : सर्वैर्जनैः परमात्मानं हृदि प्रकाश्य स पूजनीयो, नृपत्याचार्योपदेशकसंन्यासिप्रभृतींश्चाहूय ते यथायोग्यं सत्करणीयाः ॥७॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।१७।१, अथ० २०।३।१, ३८।१, ४७।७, साम० ६६६। २. विवरणकारस्तु 'सदः सदसि मम स्वभूते वेद्याख्ये स्थाने' इत्याह। तत्तु स्वरविरुद्धम् तिङ्स्वरत्वात्। आसदः आसीद—इति भ०। आसीद अभिनिषीद—इति सा०।