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Samveda/258

बृहदिन्द्राय गायत मरुतो वृत्रहन्तमम्। येन ज्योतिरजनयन्नृतावृधो देवं देवाय जागृवि॥२५८

Veda : Samveda | Mantra No : 258

In English:

Seer : nRRimedha purumedhaavaa~Ngirasau | Devta : indraH | Metre : bRRihatii | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : bRRihadindraaya gaayata maruto vRRitrahantamam . yena jyotirajanayannRRitaavRRidho deva.m devaaya jaagRRivi.258

Component Words :
bRRihat. indraaya .gaayata. marutaH. vRRitrahantamam.vRRitra.hantamam. yena. jyotiH. ajanayan. RRitaavRRidhaH.RRita.vRRidhaH. devam. devaaya. jaagRRivi..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : नृमेध पुरुमेधावाङ्गिरसौ | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अगले मन्त्र में मनुष्यों को परमेश्वर के स्तुतिगीत गाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

पदपाठ : बृहत्। इन्द्राय ।गायत। मरुतः। वृत्रहन्तमम्।वृत्र।हन्तमम्। येन। ज्योतिः। अजनयन्। ऋतावृधः।ऋत।वृधः। देवम्। देवाय। जागृवि।६।

पदार्थ : हे (मरुतः) मनुष्यो ! तुम (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् परमात्मा के लिए (वृत्रहन्तमम्) विघ्नों व पापों के अतिशय विनाशक (बृहत्) “त्वामिद्धि हवामहे” साम २३४, ८०९ ऋचा पर गाये जानेवाले बृहत् नामक सामगान को (गायत) गाओ, (येन) जिस गान से (ऋतावृधः) सत्य को बढ़ानेवाले सिद्ध योगी लोग (देवाय) योगाङ्गों में कीड़ा करनेवाले साधक के लिए (देवम्) प्रकाशमान, (जागृवि) जागरणशील (ज्योतिः) अन्तःज्योति को (अजनयन्) उत्पन्न कर देते हैं ॥६॥

भावार्थ : जिस सामगान से सिद्ध योगी लोग योगाभ्यासी शिष्य को योगविद्या में निष्णात कर देते हैं, वह सामगान हमें भी गाना चाहिए ॥६॥


In Sanskrit:

ऋषि : नृमेध पुरुमेधावाङ्गिरसौ | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अथ मनुष्या इन्द्रस्य स्तुतिगीतानि गातुं प्रेर्यन्ते।

पदपाठ : बृहत्। इन्द्राय ।गायत। मरुतः। वृत्रहन्तमम्।वृत्र।हन्तमम्। येन। ज्योतिः। अजनयन्। ऋतावृधः।ऋत।वृधः। देवम्। देवाय। जागृवि।६।

पदार्थ : हे (मरुतः) मनुष्याः ! यूयम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते परमात्मने (वृत्रहन्तमम्) विघ्नानां पापानां च अतिशयेन विनाशकं (बृहत्२) ‘त्वामिद्धि हवामहे’ (साम० २३४, ८०९) इत्यस्यामृचि गीयमानं बृहदाख्यं सामगानम् (गायत) गीतिपूर्वकं सलयमुच्चारयत, (येन) गानेन (ऋतावृधः३) सत्यस्य वर्द्धयितारः सिद्धा योगिनः, (देवाय) योगाङ्गेषु क्रीडते साधकाय। दीव्यतीति देवः। दिवु क्रिडाविजिगीषाद्यर्थः, पचाद्यच्। (देवम्) प्रकाशमानम्, (जागृवि) जागरणशीलम्। जागर्तीति जागृविः। ‘जॄशॄस्तॄजागृभ्यः क्विन्’ उ० ४।५५ इति जागृधातोः क्विन् प्रत्ययः। तस्य नित्वाद् ‘ञ्नित्यादिर्नित्यम्’ अ० ६।१।१९१ इत्याद्युदात्तत्वम्। (ज्योतिः) अन्तःप्रकाशम् (अजनयन्) जनयन्ति। अत्र लडर्थे लङ् ॥६॥४

भावार्थ : येन सामगानेन सिद्धा योगिनो योगाभ्यासिनं शिष्यं योगविद्यायां निष्णातं कुर्वन्ति तत् सामगानमस्माभिरपि गेयम् ॥६॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।८९।१, य० २०।३०।२. बृहत् महत्, सुष्ठु इत्यर्थः। इन्द्राय गायत उच्चारयत। किं तत् ? सामर्थ्यात् स्तुतिरूपम्—इति वि०। महत् स्तोत्रं बृहदाख्यमेव वा साम—इति भ०। बृहत् साम—इति सा०। महत् साम—इति य० २०।३० भाष्ये द०।३. विवरणकारस्तु सम्बोधनान्तं पदमिदं मन्यते—‘हे ऋतावृधः, ऋतो यज्ञः तं ये वर्धयन्ति ते ऋतावृधः। तेषां सम्बोधनं ‘हे ऋतावृधः’ इति। ‘यज्ञस्य वर्धयितारः आङ्गिरसः’—इति भ०। ऋतस्य सत्यस्य वा वर्धका विश्वेदेवाः अङ्गिरसो वा ऋषयः—इति सा०।४. दयानन्दर्षिर्यजुर्भाष्ये मन्त्रमिमं सामगानविषये व्याचष्टे।