Samveda/305
कुष्ठः को वामश्विना तपानो देवा मर्त्यः। घ्नता वामश्मया क्षपमाणोशुनेत्थमु आदुन्यथा॥३०५
Veda : Samveda | Mantra No : 305
In English:
Seer : ashvinau vaivasvatau | Devta : ashvinau | Metre : bRRihatii | Tone : madhyamaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : kuShThaH ko vaamashvinaa tapaano devaa martyaH . ghnataa vaamashmayaa kShapamaaNo.m shunetthamu aadunyathaa.305
Component Words : ku.sthaH.kaH. vaam. ashvinaa.tapaanaH. devaa. martyaH. ghnataa vaam. ashvayaa. kaShapamaaNaH. a.m.ashunaa. ittha.m.u.aat.u.anyathaa.an.yathaa..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : अश्विनौ वैवस्वतौ | देवता : अश्विनौ | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः
विषय : अगले मन्त्र में यह बताया है कि किस कारण से उक्त अश्वी तप्त या रुष्ट होते हैं।
पदपाठ : कु।स्थः।कः। वाम्। अश्विना।तपानः। देवा। मर्त्यः। घ्नता वाम्। अश्वया। कषपमाणः। अंऽशुना। इत्थं।उ।आत्।उ।अन्यथा।अन्।यथा।३।
पदार्थ : हे (देवा) दानादि गुणों से युक्त, तेज से प्रकाशमान (अश्विना) परमात्मा-जीवात्मा और अध्यापक-उपदेशको ! (युवाम्) तुम (कु) कहाँ (स्थः) हो? (कः मर्त्यः) कौन मनुष्य (वाम्) तुम्हें (तपानः) संतप्त करनेवाला है? तुम कहाँ हो? प्रेरणा, शिक्षण या उपदेश क्यों नहीं करते हो? क्या रुष्ट हो? तुम्हारे रोष का क्या कारण है? आगे स्वयं ही उत्तर देता है—प्रथम—परमात्मा-जीवात्मा के पक्ष में—(अश्नया) मन में व्याप्त, (वाम् घ्नता) तुम्हारे पास पहुँचनेवाले (अंशुना) ज्ञान-कर्म-श्रद्धारूप सोमरस से (क्षपमाणः) तुम्हें वंचित करनेवाला ही तुम्हारा संतापक है । द्वितीय—अध्यापक-उपदेशक के पक्ष में। (अश्नया) भूख से (घ्नता) पीड़ित (वाम्) तुम्हें (अंशुना) भोजन, वस्त्र, वेतन आदि देयांश से (क्षपमाणः) वंचित करनेवाला ही तुम्हारा संतापक है। आगे अभयपक्ष में—(इत्थम् उ) ऐसा ही है न? (आत् उ) अथवा (अन्यथा) इससे भिन्न अन्य ही कोई तुम्हारे संताप और रोष का कारण है? अभिप्राय यह है कि अन्य कोई कारण नहीं हो सकता ॥३॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ : परमात्मा और जीवात्मा रूप अश्वी सदा मनुष्यों के हृदय में बैठे हुए हैं। जो ज्ञान, कर्म, श्रद्धा, भक्ति आदि का सोमरस यथायोग्य उन्हें अर्पित करता है, उसे वे सदा सत्प्रेरणा देते रहते हैं। पर जो उनकी उपेक्षा करता है उससे वे रुष्ट के समान हो जाते हैं। उसी प्रकार जो शिक्षण और उपदेशों से उपकार करनेवाले अध्यापक और उपदेशक को दक्षिणारूप में भोजन-वस्त्र आदि अथवा निश्चित वेतन नहीं देता, वह उनके प्रति अपराध करता है ॥३॥
In Sanskrit:
ऋषि : अश्विनौ वैवस्वतौ | देवता : अश्विनौ | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः
विषय : अथ केन हेतुना तावश्विनौ तप्तौ रुष्टौ वा भवत इत्याह१।
पदपाठ : कु।स्थः।कः। वाम्। अश्विना।तपानः। देवा। मर्त्यः। घ्नता वाम्। अश्वया। कषपमाणः। अंऽशुना। इत्थं।उ।आत्।उ।अन्यथा।अन्।यथा।३।
पदार्थ : हे (देवा) देवौ दानादिगुणयुक्तौ, तेजसा दीप्यमानौ (अश्विना) अश्विनौ परमात्मजीवात्मानौ अध्यापकोपदेशकौ वा ! उभयत्र ‘सुपां सुलुक्०’—अ० ७।१।३९ अनेन औ इत्यस्य आकारः। युवाम् (कु२) कुह। कु तिहोः। अ० ७।२।१०४ इति किमः कुः आदेशः, प्रत्ययस्य छान्दसो लुक्। (स्थः) वर्तेथे ? संहितायाम् पूर्वपदात् अ० ८।३।१०६ इति सकारस्य मूर्धन्यादेशः। (कः मर्त्यः) को मनुष्यः (वाम्) युवाम् (तपानः३) सन्तापयन् भवतीति शेषः ? युवां कुत्र स्थः किमिति प्रेरणां शिक्षणमुपदेशं च न प्रयच्छथः ? किमु रुष्टौ स्थः ? किं वां रोषहेतुः ? अथ स्वयमेवोत्तरति। प्रथमं परमात्मजीवात्मपक्षे—(अश्नया) अश्नेन मनसि व्याप्तेन। अशूङ् व्याप्तौ। ‘सुपां सुलुक्०’ इति तृतीयैकवचनस्य या आदेशः। (वाम् घ्नता) युवां प्रतिगच्छता। हन हिंसागत्योः, शतरि रूपम्. (अंशुना) ज्ञान-कर्म-श्रद्धारूपेण सोमरसेन, युवाम् (क्षपमाणः४) वञ्चितं कुर्वन् एव वां तपानोऽस्ति इत्यहमवैमि। अथ अध्यापकोपदेशकपक्षे—(अश्नया५) अशनया बुभुक्षया। अकारलोपश्छान्दसः, यद्वा अशनाया अर्थे अश्ना शब्दः स्वतन्त्रो वेदे प्रयुक्त इति ज्ञेयम्। (घ्नता) घ्नतौ हतौ। द्वितीया-द्विवचनस्य ‘सुपां सुलुक्’ इति आकारादेशः। (वाम्) युवाम् (अंशुना) भोजनाच्छादनवेतनादिना देयांशेन (क्षपमाणः) वञ्चितं कुर्वन् जन एव वां संतापकोऽस्ति। क्षप प्रेरणे चुरादिः, शानच्। अथ उभयपक्षे—(इत्थम् उ) एवमेव विद्यते, ममानुमानं सत्यमस्ति ? (आत् उ६) यद्वा (अन्यथा) एतद्भिन्नम्, युवयोः तापस्य रोषस्य च कारणं किमप्यन्यदेवास्ति ? न किमप्यन्यत् संभवतीति भावः ॥३॥अत्र श्लेषालङ्कारः ॥
भावार्थ : परमात्मजीवात्मरूपौ अश्विनौ सदा जनानां हृदये संनिविष्टौ स्तः। यो ज्ञानकर्मश्रद्धादिरूपं सोमरसं यथायोग्यं ताभ्यामर्पयति, तस्मै तौ सदा सत्प्रेरणां प्रयच्छतः। परं यस्तयोरुपेक्षां करोति तं प्रति तौ रुष्टाविव तिष्ठतः। तथैव यो शिक्षणोपदेशैरुपकुर्वद्भ्यामध्यापकोपदेशकाभ्यां दक्षिणारूपेण भोजनाच्छादनादिकं निश्चितं वेतनं वा नार्पयति स ताभ्यामपराध्यति ॥३॥
टिप्पणी:१. अश्विनोः स्तूयमानयोः आगमनविलम्बात् विचिकित्सेयम्—इति भ०।२. कु ष्ठः कुत्र स्थो युवाम्—इति भ०। विवरणकृता सायणेन च ‘कुष्ठः’ इति समस्तपदत्वेन व्याख्यातम्। ‘कुः पृथिवी तस्यां स्थितः कुस्थः’—इति वि०। कौ पृथिव्यां वर्तमानः को मर्त्यः—इति सा०।३. कः वां युवां हे अश्विनौ तपानः तापयमानः—इति वि०। को मर्त्यः वां युवां क्षपमाणः भवति अस्मान् प्रहापयन् भवति। तपानः तप आचरन्—इति भ०।४. क्षयमाणः इति पाठान्तरम्। सायणेन तदनुसृत्यैव व्याख्यातम्।५. अश्नया क्षुधा—इति वि०। अश्नया अश्न शब्दाद् द्वितीयाद्विवचनस्य या आदेशः। अश्नौ व्यापकौ युवाम्। अश्नोतेरश्नौ। ‘तस्य भ्राता मध्यमोऽस्त्यश्नः’ ऋ० १।१६४।१ इति हि निगमः। अथवा अश्नया अशनया फलेच्छयेति—भ०।६. सायणेन ‘आद्वन्’ इत्येकं पदं स्वीकृत्य अभिमतान्नरसादिभक्षणवान् राजादिरिवेति व्याख्यातम्। तत्तु पदकारविरुद्धम्, तत्र ‘आत् उ अन्यथा’ इति पाठात्।