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Samveda/319

वयः सुपर्णा उप सेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः। अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुमुग्ध्याऽ३स्मान्निधयेव बद्धान्॥३१९

Veda : Samveda | Mantra No : 319

In English:

Seer : gauriviitiH shaaktyaH | Devta : indraH | Metre : triShTup | Tone : dhaivataH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : vayaH suparNaa upa sedurindra.m priyamedhaa RRiShayo naadhamaanaaH . apa dhvaantamuurNuhi puurdhi chakShurmumugdhyaa3smaannidhayeva baddhaan.319

Component Words :
vayaH. suparNaaH.su.parNaaH. upa. seduH. indra.m. priyamedhaaH.priya.medhaaH. RRiShayaH. naadhamaanaaH. apa. dhvaanta.m.uurNuhi. puurdhi. chakShuH. mumugdhi.asmaan. nidhayaa.ni.dhayaa.iva. baddhaan..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : गौरिवीतिः शाक्त्यः | देवता : इन्द्रः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अगले मन्त्र में पहेली द्वारा बहुत-से अर्थों का वर्णन है।

पदपाठ : वयः। सुपर्णाः।सु।पर्णाः। उप। सेदुः। इन्द्रं। प्रियमेधाः।प्रिय।मेधाः। ऋषयः। नाधमानाः। अप। ध्वान्तं।ऊर्णुहि। पूर्धि। चक्षुः। मुमुग्धि।अस्मान्। निधया।नि।धया।इव। बद्धान्।७।

पदार्थ : प्रथम—सूर्य और सूर्य-किरणों के पक्ष में। (सुपर्णाः वयः) सुन्दर पंखोंवाले पक्षियों के समान सुन्दर उड़ान लेनेवाली सूर्य-किरणें, मानो (इन्द्रम्) सूर्य के (उपसेदुः) समीप पहुँचती हैं। (प्रियमेधाः) बुद्धि बढ़ाना अथवा प्रकाशप्रदानरूप यज्ञ करना जिन्हें प्रिय है, ऐसी (ऋषयः) दर्शन में सहायक वे (नाधमानाः) मानो याचना करती हैं कि हे सूर्य (निधया इव) मानो जाल से (बद्धान्) बँधी हुई (अस्मान्) हमें आप मुमुग्धि छोड़ दो, हमारे द्वारा (ध्वान्तम्) अन्धकार के आवरण को (अप-ऊर्णुहि) परे हटा दो, और (चक्षुः) प्राणियों की आँख को (पूर्धि) प्रकाश से पूर्ण कर दो ॥द्वितीय—आचार्य और शिष्यों के पक्ष में। (सुपर्णाः) ज्ञान, कर्म, उपासना रूप सुन्दर पंखोंवाले, (वयः) उड़ने में समर्थ पक्षियों के समान पढ़ी हुई विद्या के प्रचार में समर्थ शिष्यगण (इन्द्रम्) विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्य के (उपसेदुः) समीप पहुँचते हैं। (प्रियमेधाः) मेधा और यज्ञ से प्रीति रखनेवाले, (ऋषयः) वेदादि शास्त्रों के द्रष्टा होते हुए वे (नाधमानाः) आचार्य से याचना करते हैं कि (निधया इव बद्धान्) मानो जाल से बाँधकर इस गुरुकुल में रखे हुए (अस्मान्) हमें, आप (मुमुग्धि) बाहर जाने के लिए छोड़ दीजिए, (ध्वान्तम्) संसार में फैले हुए अविद्या के अन्धकार को, (अप-ऊर्णुहि) हमारे द्वारा हटा दीजिए, और लोगों में (चक्षुः) ज्ञान के प्रकाश को (पूर्धि) भर दीजिए ॥तृतीय—परमात्मा और जीवात्मा के पक्ष में। (सुपर्णाः) ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि रूप सुन्दर पंखोंवाले (वयः) पक्षियों के तुल्य जीवात्मा (इन्द्रम्) परमेश्वर के (उपसेदुः) पास पहुँचते हैं। (प्रियमेधाः) बुद्धि अथवा यज्ञ के प्रेमी, (ऋषयः) पदार्थों का दर्शन करनेवाले वे (नाधमानाः) परमात्मा से याचना करते हैं कि हमारे (ध्वान्तम्) तमोगुण के आवरण को (अप-ऊर्णुहि) हटा दो, और हमारे अन्दर (चक्षुः) ज्ञानप्रकाश को (पूर्धि) भर दो। (निधया इव) जाल के तुल्य जन्म, जरा, मरण आदि से (बद्धान्) शरीर या संसार में बंधे हुए (अस्मान्) हमें (मुमुग्धि) मुक्त कर दो, मोक्ष प्रदान कर दो ॥चतुर्थ—राजा और प्रजा के पक्ष में। (सुपर्णाः) विविध साधनरूप शुभ पंखोंवाले (वयः) कर्मण्य प्रजाजन (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् वीर राजा के (उपसेदुः) समीप पहुँचते हैं। (प्रियमेधाः) मेधाप्रिय एवं यज्ञप्रिय, (ऋषयः) दृष्टिसम्पन्न, प्रबुद्ध वे (नाधमानाः) राजा से याचना करते हैं कि (ध्वान्तम्) राष्ट्र में व्याप्त अविद्या, भ्रष्टाचार आदि के अन्धकार को (अप-ऊर्णुहि) हटा दीजिए, हमारे अन्दर (चक्षुः) सद्विज्ञान, सद्विचार, सदाचार आदि का प्रकाश (पूर्धि) भर दीजिए। (निधया इव) मानो पापों और दुर्व्यसनों के जाल से (बद्धान्) बँधे हुए (अस्मान्) हम प्रजाजनों को (मुमुग्धि) श्रेष्ठ शिक्षा, दण्ड आदि उपायों द्वारा पापों और दुर्व्यसनों से छुड़ा दीजिए ॥७॥इस मन्त्र में अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है। अप्रस्तुत सूर्य तथा रश्मियों के वृत्तान्त से प्रस्तुत गुरु-शिष्य, परमात्मा-जीवात्मा और राजा-प्रजा का वृत्तान्त सूचित हो रहा है। ‘निधयेव बद्धान्—मानो जाल में बँधे हुए’ में उत्प्रेक्षा है ॥७॥

भावार्थ : कवि उत्प्रेक्षा कर रहा है कि रात्रि में सूर्य-किरणें जाल में बँधे पक्षियों के समान मानो सूर्यमण्डल के अन्दर बद्ध हो जाती हैं, तब वे मानो सूर्य से याचना करती हैं कि हमें छोड़ दो, जिससे हम भूतल पर जाकर अँधेरा मिटाकर सर्वत्र प्रकाश फैला दें। इसी प्रकार विद्याध्ययन किये हुए शिष्य आचार्य से याचना करते हैं कि आप हमें गुरुकुल से मुक्त कर दीजिए, जिससे बाहर जाकर हम संसार में फैले हुए अविद्या के अँधेरे को मिटाएँ। जीवात्मा-गण परमात्मा से याचना करते हैं कि ज्ञान की सलाई से हमारी चक्षु को दोषमुक्त करके जन्म, जरा, मरण आदि से बँधे हुए हमें मोक्ष का अधिकारी बना दीजिए। प्रजाजन राजा से याचना करते हैं कि राष्ट्र में व्याप्त अज्ञान, दुराचार आदि के अन्धकार को विछिन्न कर राष्ट्र को पतन की ओर ले जानेवाले सब दुर्व्यसनों से हमें छुड़ा दीजिए ॥७॥


In Sanskrit:

ऋषि : गौरिवीतिः शाक्त्यः | देवता : इन्द्रः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अथ प्रहेलिकया बहवोऽर्था वर्ण्यन्ते।

पदपाठ : वयः। सुपर्णाः।सु।पर्णाः। उप। सेदुः। इन्द्रं। प्रियमेधाः।प्रिय।मेधाः। ऋषयः। नाधमानाः। अप। ध्वान्तं।ऊर्णुहि। पूर्धि। चक्षुः। मुमुग्धि।अस्मान्। निधया।नि।धया।इव। बद्धान्।७।

पदार्थ : प्रथमः—सूर्य-सूर्यरश्मि-पक्षे। (सुपर्णाः वयः२) उत्कृष्टपक्षतियुक्ताः पक्षिणः इव सुपतनाः आदित्यरश्मयः (इन्द्रम्) सूर्यम् (उपसेदुः) उपसीदन्तीव। अत्र कालसामान्ये लिट्। (प्रियमेधाः) प्रिया मेधा बुद्धिप्रदानाख्यं कर्म येषां तादृशाः, यद्वा, प्रियः मेधः यज्ञः प्रकाशप्रदानरूपः येषां तथाविधाः। प्रियमेधः प्रिया अस्य मेधा। निरु० ३।१७। मेध इति यज्ञनाम। निघं० ३।१७ बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (ऋषयः) दर्शयितारः ते। ऋषिर्दर्शनात् इति निरुक्तम् २।११। (नाधमानाः) याचमानाः इव भवन्ति। नाधृ याच्ञोपतापैश्वर्याशीःषु, भ्वादिः, शानच् प्रत्ययः। यत् हे आदित्य ! (निधया इव) पाशसमूहेन इव। निधा पाश्या भवति यन्निधीयते। पाश्या पाशसमूहः, पाशः पाशयतेः विपाशनात्। निरु० ४।२। (बद्धान्) संयतान् (अस्मान्) नः (मुमुग्धि) मुञ्च। मुच्लृ मोचने, तुदादिः। लोटि ‘बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७६’ इति शपः श्लौ द्वित्वे रूपम्। अस्मद्द्वारा (ध्वान्तम्) तमः, तमसः आवरणमिति यावत् (अप ऊर्णुहि) अपावृणु, (चक्षुः) प्राणिनां नेत्रम् (पूर्धि) प्रकाशेन पूरय ॥मन्त्रमेतं यास्काचार्य एवं व्याख्यातवान्—वयो वेर्बहुवचनम्। सुपर्णाः सुपतनाः आदित्यरश्मयः। उपसेदुरिन्द्रं याचमानाः। अपोर्णुहि आध्वस्तं चक्षुः। पूर्धि पूरय, देहीति वा। मुञ्चास्मान् पाशैरिव बद्धान् इति। निरु० ४।३ ॥अथ द्वितीयः—आचार्य-शिष्य-पक्षे। (सुपर्णाः) ज्ञानकर्मोपासनारूपशोभनपक्षयुक्ताः (वयः) उड्डयनसमर्थाः पक्षिणः इव अधीतविज्ञानप्रचारसमर्थाः शिष्याः (इन्द्रम्) विद्यैश्वर्यवन्तम् आचार्यम् (उपसेदुः) उपसीदन्ति। (प्रियमेधाः) प्रियबुद्धयः प्रिययज्ञाः वा (ऋषयः) वेदादिशास्त्रद्रष्टारः सन्तः ते (नाधमानाः) आचार्यं याचमानाः भवन्ति यत् (निधया इव बद्धान्) पाशैरिवात्र गुरुकुले निगडितान् (अस्मान्) नः (मुमुग्धि) बहिर्गन्तुं मुञ्च, अस्मद्द्वारा (ध्वान्तम्) जगति प्रसृतम् अविद्यान्धकारम् (अप-ऊर्णुहि) अपसारय, जनेषु च (चक्षुः) ज्ञानप्रकाशम् (पूर्धि) पूरय ॥अथ तृतीयः—परमात्म-जीवात्म-पक्षे। (सुपर्णाः) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय-प्राण- मनो-बुद्धिरूपशोभनपक्षाः (वयः) पक्षिणः इव जीवात्मानः (इन्द्रम्) परमेश्वरम् (उपसेदुः) उपसीदन्ति। (प्रियमेधाः) प्रियप्रज्ञानाः प्रिययज्ञाः वा (ऋषयः) द्रष्टारः ते (नाधमानाः) परमेश्वरं याचमानाः भवन्ति, यत् अस्माकम् (ध्वान्तम्) तमोगुणावरणम् (अप-ऊर्णुहि) अपसारय, (चक्षुः) ज्ञानप्रकाशम् (पूर्धि) पूरय, (निधया इव) पाशसमूहेन इव जन्मजरामरणादिना (बद्धान्) देहे जगति वा निगडितान् (अस्मान्) नः (मुमुग्धि) मुञ्च, मुक्तिप्रदानेन अनुगृहाण ॥अथ चतुर्थः—राज-प्रजा-पक्षे। (सुपर्णाः) विविधसाधनरूपशुभपक्षाः (वयः) कर्मण्याः प्रजाजनाः। गत्यर्थकाद् वी धातोरिदं रूपम्। (इन्द्रम्) परमैश्वर्यं वीरं राजानम् (उपसेदुः) उपसीदन्ति। (प्रियमेधाः) प्रियबुद्धयः प्रिययज्ञाः वा (ऋषयः) दर्शनशक्तिसम्पन्नाः प्रबुद्धाः ते (नाधमानाः) राजानं याचमानाः भवन्ति, यत् (ध्वान्तम्) राष्ट्रे व्याप्तम् अविद्याभ्रष्टाचारादिरूपं तमः (अप-ऊर्णुहि) अपसारय, (चक्षुः) सद्विज्ञान-सद्विचार-सदाचारादीनां प्रकाशम् (पूर्धि) पूरय, (निधया इव) पाशसमूहेन इव पापैर्दुर्व्यसनैश्च (बद्धान्) निगडितान् (अस्मान्) प्रजाजनान् (मुमुग्धि३) सच्छिक्षण-दण्डादिभिरुपायैः पापेभ्यो दुर्व्यसनेभ्यश्च मोचय ॥७॥अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कारः। अप्रस्तुतेन सूर्य-रश्मि-वृत्तान्तेन प्रस्तुतो गुरुशिष्य-परमात्मजीवात्मराजप्रजावृत्तान्तो व्यज्यते। ‘निधयेव बद्धान्’ इत्युत्प्रेक्षा ॥७॥

भावार्थ : कविरुत्प्रेक्षते यद् रात्रौ सूर्यरश्मयो जालबद्धाः खगा इव सूर्यमण्डले संयता इव भवन्ति, ते तदा सूर्यं याचन्ते इव यदस्मान् मुञ्च येन वयं भूतलं गत्वाऽन्धकारं निवार्य सर्वत्र प्रकाशं प्रसारयेम। तथैव गृहीतविद्याः शिष्या आचार्यं याचन्ते यदस्मान् गुरुकुलाद् विसृज, येन बहिर्गत्वा वयं जगति प्रसृतम् अविद्यान्धकारं निवारयेम। तथैव जीवात्मानः परमात्मानं याचन्ते यज्ज्ञानाञ्जनशलाकयाऽस्माकं चक्षुरुन्मील्य जन्मजरामरणादिभिर्निगडि- तानस्मान् मोक्षाधिकारिणः कुरु। तथैव प्रजाजना राजानं याचन्ते यद् राष्ट्रे व्याप्तम् अज्ञानदुराचारादिरूपं तमो विच्छिद्य राष्ट्रपतनकारिभ्यः समस्तेभ्योऽपि दुर्व्यसनेभ्योऽस्मान् मोचयेति ॥७॥

टिप्पणी:१. ऋ० १०।७३।११।२. वयः। लुप्तोपममेतत्। वय इव। शीघ्रगमनेन पक्षिसदृशा इत्यर्थः। के ते ? आदित्यरश्मयः—इति वि०।३. मुमुग्धि मोचय अस्मान् पापेभ्यः—इति भ०।