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Samveda/328

प्र वो महे महेवृधे भरध्वं प्रचेतसे प्र सुमतिं कृणुध्वम्। विशः पूर्वी प्र चर चर्षणिप्राः॥३२८

Veda : Samveda | Mantra No : 328

In English:

Seer : vasiShTho maitraavaruNiH | Devta : indraH | Metre : triShTup | Tone : gaandhaaraH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : pra vo mahe mahevRRidhe bharadhva.m prachetase pra sumati.m kRRiNudhvam . vishaH puurviiH pra chara charShaNipraaH.328

Component Words :
pra. vaH. mahe. mahevRRidhe.mahe.vRRidhe. bharadhvam. prachetase .pra.chetase. pra.sumati.m.su.matim. kRRiNudhvam. vishaH. puurviiH. pra. chara. charShaNipraaH.charShaNi.praaH ..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा की स्तुति का विषय है।

पदपाठ : प्र। वः। महे। महेवृधे।महे।वृधे। भरध्वम्। प्रचेतसे ।प्र।चेतसे। प्र।सुमतिं।सु।मतिम्। कृणुध्वम्। विशः। पूर्वीः। प्र। चर। चर्षणिप्राः।चर्षणि।प्राः ।६।

पदार्थ : साथियों ! (वः) तुम (महेवृधे) जो तेज के लिए मनुष्यों को बढ़ाता है ऐसे, (महे) पूजनीय इन्द्र जगदीश्वर के लिए (प्र भरध्वम्) पूजा का उपहार हेलाओ। (प्रचेतसे) श्रेष्ठ ज्ञानवाले उसके लिए (सुमतिम्) श्रेष्ठ स्तुति को (प्रकृणुध्वम्) श्रेष्ठ रूप से करो। हे इन्द्र परमात्मन् ! (चर्षणिप्राः) मनुष्यों को पूर्ण करनेवाले आप (पूर्वीः) श्रेष्ठ (विशः) प्रजाओं को (प्र चर) धन, धान्य, गुणों आदि से पूर्ण करने के लिए प्राप्त होवो ॥६॥इस मन्त्र में ‘महे, महे’ में यमक अलङ्कार है। ‘प्र’ की पाँच बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास और ‘ध्वम्, ध्वम्’ तथा ‘चर, चर्’ में छेकानुप्रास है ॥६॥

भावार्थ : पूजा के बहुमूल्य उपहार से सत्कृत किया गया महामहिमाशाली जगदीश्वर स्तोताओं को विविध आध्यात्मिक और भौतिक ऐश्वर्यों से भरपूर कर देता है ॥६॥


In Sanskrit:

ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अथ पुनः परमात्मस्तुतिविषयमाह।

पदपाठ : प्र। वः। महे। महेवृधे।महे।वृधे। भरध्वम्। प्रचेतसे ।प्र।चेतसे। प्र।सुमतिं।सु।मतिम्। कृणुध्वम्। विशः। पूर्वीः। प्र। चर। चर्षणिप्राः।चर्षणि।प्राः ।६।

पदार्थ : हे सखायः (वः) यूयम् (महेवृधे२) महे तेजसे वर्धयति जनान् यः सः महेवृत् तस्मै। अत्र मह-उपपदात् वृध धातोर्णिजन्तात् क्विप् प्रत्ययः। बाहुलकात् चतुर्थ्या अलुक्। कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरः। (महे) पूजनीयाय इन्द्राय जगदीश्वराय। मह पूजायाम् धातोः क्विपि चतुर्थ्येकवचने रूपम्। (प्र भरध्वम्) पूजोपहारम् आनयत। (प्रचेतसे) प्रकृष्टज्ञानाय तस्मै (सुमतिम्३) शोभनां स्तुतिम् (प्र कृणुध्वम् प्रकुरुत। अथ प्रत्यक्षस्तुतिः। हे इन्द्र परमात्मन् ! (चर्षणिप्राः४) चर्षणयो मनुष्यास्तान् प्राति पूरयति यस्तादृशः त्वम्। चर्षणिरिति मनुष्यनाम। निघं० २।३। प्रा पूरणे अदादिः, कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरः। (पूर्वाः) श्रेष्ठाः (विशः) प्रजाः (प्रचर) धनधान्यगुणगणादिभिः पूरयितुं प्राप्नुहि। चर गतिभक्षणयोः, भ्वादिः ॥६॥अत्र ‘महे, महे’ इत्यत्र यमकम्। प्र इत्यस्य पञ्चकृत्व आवृत्तेर्वृत्त्यनुप्रासः, ‘ध्वम्, ध्वम्’, ‘चर, चर्’ इत्यत्र च छेकानुप्रासः ॥६॥

भावार्थ : महार्घपूजोपहारेण सत्कृतो महामहिमशाली जगदीश्वरः स्तोतॄन् विविधैराध्यात्मिकैर्भौतिकैश्चैश्वर्यैः प्रपूरयति ॥६॥

टिप्पणी:१. ऋ० ७।३१।१०, अथ० २०।७३।३ उभयत्र ‘महेवृधे’ ‘चर’ इत्यस्य स्थाने महिवृधे ‘चरा’ इति पाठः।२. महेवृधे महतां यजमानानां वर्धयितुरिन्द्रस्यार्थाय—इति वि०। महतां धनानां वर्धयित्रे—इति भ०, सा०।३. मन्यते इत्यर्चतिकर्मा—शोभनां स्तुतिम्—इति वि०।४. चर्षणयो मनुष्याः तेषां पूरयिता चर्षणिप्राः। इन्द्रविशेषणमेतत् सम्बुद्ध्यन्तम्। धनेन मनुष्याणां पूरयितः। छान्दसत्वान्निघाताभावः—इति वि०।