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Samveda/346

श्रुधी हवं तिरश्च्या इन्द्र यस्त्वा सपर्यति। सुवीर्यस्य गोमतो रायस्पूर्धि महा असि॥३४६

Veda : Samveda | Mantra No : 346

In English:

Seer : tirashchiiraa~NgirasaH | Devta : indraH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : shrudhii hava.m tirashchyaa indra yastvaa saparyati . suviiryasya gomato raayaspuurdhi mahaa.m asi.346

Component Words :
shrudhi . havam. tirashchyaaH. tira.chyaaH. indra .yaH.tvaa. saparyati. suviiryasya.su.viiryasya. gomataH. raayaH.puurdhi. mahaan. asi..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : तिरश्चीराङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अगले मन्त्र में पुनः इन्द्र से धनों की प्रार्थना की गयी है।

पदपाठ : श्रुधि । हवम्। तिरश्च्याः। तिर।च्याः। इन्द्र ।यः।त्वा। सपर्यति। सुवीर्यस्य।सु।वीर्यस्य। गोमतः। रायः।पूर्धि। महान्। असि।५।

पदार्थ : हे (इन्द्र) भक्तवत्सल परमात्मन् ! (यः) जो मनुष्य (त्वा) आपकी (सपर्यति) आराधना करता है, उस (तिरश्च्याः) आपको प्राप्त होकर पुरुषार्थ करनेवाले अथवा लम्बे जटिल मार्ग को छोड़कर बाण के समान चीरते हुए आगे बढ़ते चले जानेवाले मनुष्य के (हवम्) आह्वान को, आप (श्रुधि) सुनिए अर्थात् पूर्ण कीजिए। साथ ही उसके लिए (गोमतः) प्रशस्त गाय, पृथिवी, वाणी आदि से युक्त (रायः) विद्या, आरोग्य, चक्रवर्ती राज्य आदि ऐश्वर्य की (पूर्धि) पूर्ति कीजिए। आप (महान्) महान्, उदार हृदयवाले (असि) हैं ॥५॥

भावार्थ : जो श्रद्धावनत होकर परमेश्वर की पूजा करता है, उससे प्रेरणा लेकर पुरुषार्थ करता है और लम्बे मार्ग पर जाने से शक्ति तथा समय का व्यय न करके लक्ष्य के प्रति बाण के समान सीधा चलता चला जाता है, उसे सब सम्पत्तियाँ शीघ्र ही हस्तगत हो जाती हैं ॥५॥


In Sanskrit:

ऋषि : तिरश्चीराङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : अथ पुनरपीन्द्रं धनानि प्रार्थयते।

पदपाठ : श्रुधि । हवम्। तिरश्च्याः। तिर।च्याः। इन्द्र ।यः।त्वा। सपर्यति। सुवीर्यस्य।सु।वीर्यस्य। गोमतः। रायः।पूर्धि। महान्। असि।५।

पदार्थ : हे (इन्द्र) भक्तवत्सल परमात्मन् ! (यः) जनः (त्वा) त्वाम् (सपर्यति) आराध्नोति, तस्य (तिरश्च्याः) तिरः त्वां प्राप्तः सन् अञ्चति कर्मण्यो भवतीति तिरश्चीः तस्य, अथवा यः सुदीर्घं जटिलं मार्गमुपेक्ष्य शरवत् तिरोऽञ्चति स तिरश्चीः तस्य। यथाह श्रुतिः ‘नाहमतो॒ निर॑या दु॒र्गहै॒तत् ति॑र॒श्चता॑ पा॒श्वान्निर्ग॑माणि’ ऋ० ४।१८।२ इति। तिरः सतः इति प्राप्तस्य। निरु० ३।२०। ‘अञ्चेश्छन्दस्यसर्वनामस्थानम्।’ अ० ६।१।१७० इति विभक्तिरुदात्ता। (हवम्) आह्वानम् (श्रुधि) शृणु, पूरयेत्यर्थः। ‘श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि। अ० ६।४।१०२’ इति हेर्धिः। ‘अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७’ इति दीर्घः। किं च, तस्मै (सुवीर्यस्य) सुपराक्रमयुक्तस्य। बहुव्रीहौ ‘वीरवीर्यौ च। अ० ६।२।१२०’ इति वीर्यशब्दस्याद्युदात्तत्वम्। (गोमतः) प्रशस्तधेनुपृथिवीवागादियुक्तस्य (रायः२) विद्यारोग्यचक्रवर्तिराज्यादिरूपस्य ऐश्वर्यस्य। ‘ऊडिदम्पदाद्यप्पुम्रैद्युभ्यः।’ अ० ६।१।१७१ इति रैशब्दादुत्तरा विभक्तिरुदात्ता। (पूर्धि) पूर्ति कुरु। त्वम् (महान्) उदारहृदयः (असि) वर्त्तसे ॥५॥

भावार्थ : यः श्रद्धावनतः सन् परमेश्वरं पूजयति, ततः प्रेरणां गृहीत्वा पुरुषार्थं करोति, सुदीर्घे मार्गे शक्तिं कालं चानपव्ययीकृत्य शरवत् तिरो लक्ष्यं प्रति गच्छति, तस्य सर्वाः सम्पदः सद्य एव हस्तगता भवन्ति ॥५॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।९५।४, साम० ८८३।२. पूरयतेः योगे करणे प्रायः षष्ठ्येव दृश्यते—इति भ०।