Samveda/357
त्यमु वो अप्रहणं गृणीषे शवसस्पतिम्। इन्द्रं विश्वासाहं नर शचिष्ठं विश्ववेदसम्॥३५७
Veda : Samveda | Mantra No : 357
In English:
Seer : sha.myurbaarhaspatyaH | Devta : indraH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : tyamu vo aprahaNa.m gRRiNiiShe shavasaspatim . indra.m vishvaasaaha.m nara.m shachiShTha.m vishvavedasam.357
Component Words : tyam. u. vaH. aprahaNam.a.prahaNam. gRRiNiiShe. shavasaH.patim. indram. vishvaasaaham.vishvaa.saaham. naram. shachiShTham . vishvavedasam.vishva.vedasam..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : शंयुर्बार्हस्पत्यः | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः
विषय : अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि इन्द्रपदवाच्य परमात्मा और राजा कैसा है।
पदपाठ : त्यम्। उ। वः। अप्रहणम्।अ।प्रहणम्। गृणीषे। शवसः।पतिम्। इन्द्रम्। विश्वासाहम्।विश्वा।साहम्। नरम्। शचिष्ठम् । विश्ववेदसम्।विश्व।वेदसम्।६।
पदार्थ : हे प्रजाजनो ! मैं (वः) तुम्हारे व अपने हितार्थ (त्यम् उ) उस, (अप्रहणम्) किसी से न मारे जा सकने योग्य अथवा अन्याय से किसी को न मारनेवाले, (शवसः पतिम्) बल और सेना के अधिपति, (विश्वासाहम्) सब शत्रुओं वा विघ्नों को परास्त करनेवाले, (नरम्) नेता, (शचिष्ठम्) अतिशय कर्मनिष्ठ, (विश्ववेदसम्) ब्रह्माण्ड वा राष्ट्र के सब घटनाचक्र को जाननेवाले (इन्द्रम्) शूरवीर परमात्मा वा राजा की (गृणीषे) गुण-कर्मों के वर्णन द्वारा स्तुति करता हूँ ॥६॥
भावार्थ : जो प्रजाओं का हित चाहते हैं उन मन्त्री, पुरोहित आदियों को चाहिए कि मन्त्रोक्त गुणों से अलङ्कृत जगदीश्वर का गुण-कर्मों के कीर्तन द्वारा और उसकी गरिमा के गान द्वारा सर्वत्र प्रचार करें और वैसे ही गुणी राजा को उसके गुणों के वर्णन द्वारा कर्तव्य के प्रति प्रोत्साहित करें ॥६॥
In Sanskrit:
ऋषि : शंयुर्बार्हस्पत्यः | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः
विषय : अथेन्द्रपदवाच्यः परमात्मा राजा च कीदृशोऽस्तीत्याह।
पदपाठ : त्यम्। उ। वः। अप्रहणम्।अ।प्रहणम्। गृणीषे। शवसः।पतिम्। इन्द्रम्। विश्वासाहम्।विश्वा।साहम्। नरम्। शचिष्ठम् । विश्ववेदसम्।विश्व।वेदसम्।६।
पदार्थ : हे प्रजाजनाः ! अहम् (वः)युष्मभ्यम्, अस्मभ्यं चेत्यपि ध्वन्यते, युष्माकमस्माकं च हितायेत्यर्थः (त्यम् उ) तं प्रख्यातम्, (अप्रहणम्२) न केनापि प्रहन्तुं शक्यम्, यद्वाऽन्यायेन कञ्चित् न घ्नन्तम्। अत्र प्र पूर्वाद् हन्तेः कर्मणि कर्तरि वा क्विप्, नञ्समासः। (शवसः पतिम्) बलस्य सैन्यस्य वा अधीश्वरम्, (विश्वासाहम्) यो विश्वान् शत्रून् विघ्नान् वा सहते अभिभवति तम्। अत्र विश्वपूर्वात् सह धातोः ‘छन्दसि सहः। अ० ३।१।६३’ इति ण्विः ‘अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७’ इति दीर्घश्च। (नरम्) नेतारम्, (शचिष्ठम्) अतिशयेन कर्मनिष्ठम्। अतिशयेन शचीमान् इति शचिष्ठः। अतिशायने इष्ठनि ‘विन्मतोर्लुक्। अ० ५।३।६५’ इति मतोर्लुक्। (विश्ववेदसम्) यो ब्रह्माण्डस्य राष्ट्रस्य वा विश्वं घटनाचक्रं वेत्ति तम् (इन्द्रम्) शूरं परमात्मानं राजानं वा (गृणीषे) गुणकर्मवर्णनेन स्तौमि। गॄ शब्दे धातोर्लेट्युत्तमैकवचने रूपम्। ‘सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।३४’ इति सिप् ॥६॥३
भावार्थ : ये प्रजानां हितमिच्छन्ति तैरमात्यपुरोहितादिभिः मन्त्रोक्तगुणगणालङ्कृतो जगदीश्वरो गुणकर्मकीर्तनद्वारा तद्गरिम्णो गानद्वारा च सर्वत्र प्रचारणीयस्तादृशो नरेश्वरश्च गुणवर्णनेन कर्त्तव्यं प्रति प्रोत्साहनीयः ॥६॥
टिप्पणी:१. ऋ० ६।४४।४, ‘मंहिष्ठं विश्वचर्षणिम्’ इति चतुर्थः पादः।२. (अप्रहणम्) योऽन्यायेन कञ्चिन्न प्रहन्ति तम्—इति ऋ० ६।४४।४ भाष्ये द०।३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं राजप्रजाविषये व्याख्यातवान्।