Samveda/367
वयश्चित्ते पतत्रिणो द्विपाच्चतुष्पादर्जुनि। उषः प्रारन्नृतूरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि॥३६७
Veda : Samveda | Mantra No : 367
In English:
Seer : praskaNvaH kaaNvaH | Devta : uShaaH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : vayashchitte patatriNo dvipaachchatuShpaadarjuni . uShaH praarannRRituu.m ranu divo antebhyaspari.367
Component Words : vayaH. chit.te. patatriNaH. dvipaat.dvi.paat. chatuShpaat.chatuH.paat. arjuni. uShaH. pra.aaran.RRituun. anu .divaH. antebhyaH. pari. .
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : प्रस्कण्वः काण्वः | देवता : उषाः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः
विषय : अगले मन्त्र का देवता उषा है। इसमें यह वर्णित है कि प्राकृतिक उषा के समान आध्यात्मिक उषा के प्रादुर्भाव होने पर कौन क्या करते हैं।
पदपाठ : वयः। चित्।ते। पतत्रिणः। द्विपात्।द्वि।पात्। चतुष्पात्।चतुः।पात्। अर्जुनि। उषः। प्र।आरन्।ऋतून्। अनु ।दिवः। अन्तेभ्यः। परि। ८।
पदार्थ : जैसे प्रभात में सूर्योदय से पूर्व प्राची दिशा के आकाश में उषा प्रकाशित होती है, वैसे ही अध्यात्म-साधना में तत्पर योगियों के हृदयाकाश में परमात्मारूप सूर्य के उदय से पूर्व उसके आविर्भाव की द्योतक आत्मप्रभारूप उषा खिलती है। उसी को यहाँ उषा नाम से कहा गया है ॥हे (अर्जुनि) जनमानस में प्रकट होती हुई शुभ्र, सत्त्वगुणप्रधान अध्यात्म-प्रभा ! (दिवः) आत्मलोक के (अन्तेभ्यः परि) प्रान्तों से (ते) तेरे (ऋतून् अनु) आगमनों पर (पतत्रिणः वयः चित्) पंखोंवाले पक्षियों के समान (पतत्रिणः) उत्क्रमणशील, अर्थात् मूलाधार आदि निचले-निचले चक्रों से ऊपर-ऊपर के चक्रों में प्राण के उत्क्रमण के लिए प्रयत्न करनेवाले योगीजन, और (द्विपात्) अपरा और परा विद्या रूप दो प्राप्तव्य पदार्थोंवाले, अथवा, ज्ञान और कर्म रूप दो गन्तव्य मार्गोंवाले, अथवा अभ्युदय और निःश्रेयस रूप दो गन्तव्य मार्गोंवाले, और (चतुष्पात्) मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार इन अन्तः करणचतुष्टयरूप साधनोंवाले, अथवा क्रमशः सुख-दुःख-पुण्य-अपुण्य विषयोंवाली मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षा ये चार वृत्तियाँ जिनके चित्तप्रसादन के उपाय हैं वे, अथवा बाह्य-आभ्यन्तर-स्तम्भवृत्ति-बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी ये चार प्राणायाम जिनके प्रकाशावरणक्षय के उपाय हैं वे, अथवा धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंवाले मनुष्य (प्रारन्) प्रगति में तत्पर हो जाते हैं ॥८॥इस मन्त्र में ‘वयः चित् पतत्रिणः’ में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥८॥
भावार्थ : जैसे प्रभातकालीन प्राकृतिक उषा के खिलने पर पंखयुक्त पक्षी, दोपाये मनुष्य और चौपाये पशु नींद छोड़कर सचेष्ट और प्रयत्नशील होते हैं, वैसे ही आध्यात्मिक उषा के प्रकट होने पर योगमार्ग में प्रवृत्त, आगे-आगे उत्क्रान्ति करनेवाले, दो साधनों या चार साधनोंवाले योगीजन अपने हृदय में और जन-मानस में अध्यात्म-सूर्य के उदय के लिए सचेष्ट हो जाते हैं ॥८॥
In Sanskrit:
ऋषि : प्रस्कण्वः काण्वः | देवता : उषाः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः
विषय : उषाः देवता। प्राकृतिक्या उषस इव आध्यात्मिक्या उषसः प्रादुर्भावे के किं कुर्वन्तीत्याह।
पदपाठ : वयः। चित्।ते। पतत्रिणः। द्विपात्।द्वि।पात्। चतुष्पात्।चतुः।पात्। अर्जुनि। उषः। प्र।आरन्।ऋतून्। अनु ।दिवः। अन्तेभ्यः। परि। ८।
पदार्थ : यथा प्रभाते सूर्योदयात् पूर्वं प्राच्या अन्तरिक्षे उषाः प्रकाशते तथैव अध्यात्मसाधनारतानां योगिनां हृदयान्तरिक्षे परमात्मसूर्यस्योदयात् प्राक् तदाविर्भावद्योतकाऽऽत्मप्रभारूपिणी उषाः प्रभासते। सैवात्र उषोनाम्ना व्याहृता ॥हे (अर्जुनि) जनमानसे आविर्भावं भजमाने शुभ्रे सत्त्वगुणप्रधाने अध्यात्मप्रभे ! (दिवः) आत्मलोकस्य (अन्तेभ्यः परि) प्रान्तेभ्यः। अत्र परिः अनर्थकः। ‘अधिपरी अनर्थकौ। अ० १।४।९३’ इति कर्मप्रवचनीयत्वे ‘पञ्चम्यपाङ्परिभिः। अ० २।३।१०’ इति परियोगे पञ्चमी। (ते) तव (ऋतून् अनु) आगमनानि उपलक्ष्य (वयः चित्) पक्षिणः इव। निरुक्ते चिद् इति निपातः उपमार्थे व्याख्यातः। निरु० १।४, ३।१६। (पतत्रिणः) उत्क्रमणशीलाः, मूलाधारादिभ्यः अधोऽधश्चक्रेभ्यः उपर्युपरि चक्रेषु प्राणोत्क्रमणाय प्रयतमाना योगिनः इत्यर्थः, (द्विपात्) द्वौ अपरापराविद्यारूपौ पादौ प्राप्तव्यौ यस्य सः, यद्वा द्वौ ज्ञानयोगकर्मयोगरूपौ पादौ गन्तव्यौ मार्गौ यस्य सः, यद्वा द्वौ अभ्युदयनिःश्रेयसरूपौ पादौ गन्तव्यौ यस्य सः, (चतुष्पात्) चत्वारः पादाः मनोबुद्धिचित्ताहंकारूपम् अन्तःकरणचतुष्ट्यं साधनं यस्य सः, यद्वा मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाः सुखःदुखपुण्यापुण्यविषयाश्चतस्रो वृत्तयः चित्तप्रसादनोपायाः यस्य सः, यद्वा बाह्य-आभ्यन्तर-स्तम्भवृत्ति-बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपिरूपाश्चत्वारः प्राणायामाः प्रकाशावरणक्षयोपायाः यस्य सः, यद्वा धर्मार्थकाममोक्षाश्चत्वारः पुरुषार्था यस्य सः, एते सर्वेऽपि। द्विपात् चतुष्पात् इत्यत्र जातौ एकवचनम्। (प्रारन्) प्रगतितत्पराः जायन्ते। प्र पूर्वाद् ऋ गतौ धातोर्जुहोत्यादेर्लुङि रूपम् ॥८॥२अत्र ‘वयः चित् पतत्रिणः’ इत्यत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥८॥
भावार्थ : यथा प्रभातकालिक्याः प्राकृतिक्या उषसः प्रादुर्भावे पक्षिणो द्विपादो मनुष्याश्चतुष्पादो मृगाश्च निद्रां विहाय सचेष्टाः प्रयत्नशीलाश्च जायन्ते तथैवाध्यात्मिक्या उषसः प्रादुर्भावे योगमार्गे प्रवृत्ता उत्क्रमणशीला द्विसाधनाश्चतुःसाधना वा योगिनः स्वहृदये जनमानसे चाध्यात्मसूर्यस्योदयाय सचेष्टा भवन्ति ॥८॥
टिप्पणी:१. ऋ० १।४९।३।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिममुषस उपमानेन स्त्रियाः कर्तव्यविषये व्याख्यातवान्।