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Samveda/394

य इन्द्र सोमपातमो मदः शविष्ठ चेतति। येना हसि न्यारऽ३त्रिणं तमीमहे॥३९४

Veda : Samveda | Mantra No : 394

In English:

Seer : parvataH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : uShNik | Tone : RRIShabhaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : ya indra somapaatamo madaH shaviShTha chetati . yenaa ha.m si nyaa3triNa.m tamiimahe.394

Component Words :
yaH . indra . somapaatamaH . soma. paatamaH. madaH. shaviShTha.chetati. yena. h.Nsi.ni. atriNam.tam. iimahe. .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : पर्वतः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : उष्णिक् | स्वर : ऋषभः

विषय : अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा, जीवात्मा और सेनाध्यक्ष को सम्बोधित किया गया है।

पदपाठ : यः । इन्द्र । सोमपातमः । सोम। पातमः। मदः। शविष्ठ।चेतति। येन। हँसि।नि। अत्रिणम्।तम्। ईमहे। ४।

पदार्थ : हे (शविष्ठ) बलिष्ठ (इन्द्र) शत्रुविदारक परमात्मन्, जीवात्मन् वा सेनाध्यक्ष ! (यः) जो आप (सोमपातमः) अतिशय वीररस का पान करनेवाले हो, उन आपका (मदः) वीरताजनित हर्ष (चेतति) सदा जागता रहता है। आप (येन) अपने जिस पराक्रम से (अत्रिणम्) भक्षक शत्रु को (निहंसि) निःशेष रूप से विनष्ट कर देते हो (तम्) उस पराक्रम की, हम भी आपसे (ईमहे) याचना करते हैं ॥४॥इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥४॥

भावार्थ : जैसे वीर परमात्मा और जीवात्मा वीररस से उत्साहित होकर सब कामक्रोधादिरूप, विघ्नरूप और पापरूप भक्षक राक्षसों को विनष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार राष्ट्र में वीर सेनापति सब आक्रान्ता रिपुओं को अपने पराक्रम से दण्डित करे। वैसा वीररस और पराक्रम सब प्रजाजनों को भी प्राप्त करना चाहिए ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : पर्वतः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : उष्णिक् | स्वर : ऋषभः

विषय : अथेन्द्रनाम्ना परमात्मानं जीवात्मानं सेनाध्यक्षं च सम्बोधयति।

पदपाठ : यः । इन्द्र । सोमपातमः । सोम। पातमः। मदः। शविष्ठ।चेतति। येन। हँसि।नि। अत्रिणम्।तम्। ईमहे। ४।

पदार्थ : हे (शविष्ठ) बलिष्ठ, (इन्द्र) शत्रुविदारक परमात्मन्, जीवात्मन्, सेनाध्यक्ष वा ! (यः) यस्त्वम् (सोमपातमः) अतिशयेन वीररसरूपस्य सोमस्य पाता असि, तस्य ते (मदः) वीरताजनितः हर्षः (चेतति) सदैव जागर्ति। (येन) पराक्रमेण, त्वम्। संहितायां ‘येना’ इति दीर्घश्छान्दसः, ‘अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७’ इति वचनात्। (अत्रिणम्) भक्षकं शत्रुम्। अत्तीति अत्री। अद भक्षणे धातोः ‘अदेस्त्रिनिश्च। उ० ४।६९’ इति त्रिनिः प्रत्ययः। अत्रिणो वै रक्षांसि। पाप्मानोऽत्रिणः। ष० ब्रा० ३।१। (निहंसि) निःशेषेण विनाशयसि, (तम्) तं ते पराक्रमम्, वयमपि (ईमहे) प्रार्थयामहे। ईमहे इति याच्ञाकर्मसु पठितम्। निघं० ३।१९ ॥४॥अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥४॥

भावार्थ : यथा वीरः परमात्मा जीवात्मा च वीररसेन हृष्टः सन् सर्वान् कामक्रोधादिरूपान्, विघ्नरूपान्, पापरूपांश्च भक्षकान् राक्षसान् विनाशयति, तथैव राष्ट्रे वीरः सेनापतिः सर्वानाक्रान्तॄन् रिपून् स्वपराक्रमेण दण्डयेत्। तादृशो वीररसः पराक्रमश्च सर्वैः प्रजाजनैरपि प्राप्तव्यः ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।१२।१, अथ० २०।६३।७।