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Samveda/428

पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः। द्विषस्तरध्या ऋणया न ईरसे॥४२८

Veda : Samveda | Mantra No : 428

In English:

Seer : RRiNa trasadasyuu | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : tripadaa anuShTuppipii likaamadhyaa | Tone : gaandhaaraH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : paryuu Shu pra dhanva vaajasaataye pari vRRitraaNi sakShaNiH . dviShastaradhyaa RRiNayaa na iirase.428

Component Words :
pari. u. su. pra. dhanva. vaajasaataye .vaaja. saataye. pari. vRRitraaNi. sakShaNiH.sa. kShaNiH.. dviShaH. taradhyai. RRiNayaaH.RRiNa.yaaH. naH. iirase ..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : ऋण त्रसदस्यू | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : त्रिपदा अनुष्टुप्पिपी लिकामध्या | स्वर : गान्धारः

विषय : अगले मन्त्र में अपने अन्तरात्मा और वीरपुरुष को वीरकर्म करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

पदपाठ : परि। उ। सु। प्र। धन्व। वाजसातये ।वाज। सातये। परि। वृत्राणि। सक्षणिः।स। क्षणिः।। द्विषः। तरध्यै। ऋणयाः।ऋण।याः। नः। ईरसे ।२।

पदार्थ : हे वीररसमय मेरे अन्तरात्मन् अथवा वीर पुरुष ! तू (वाजसातये) संग्राम के लिए अर्थात् शत्रुओं के साथ युद्ध करने के लिए (उ सु) भली-भाँति (परि प्र धन्व) चारों ओर प्रयाण कर, (सक्षणिः) हिंसक होकर तू (वृत्राणि) आच्छादक पापों पर (परि) चारों ओर से आक्रमण कर। (ऋणयाः) ऋणों को चुकानेवाला होकर तू (द्विषः) लोभ आदि द्वेषियों को (तरध्यै) पार करने के लिए (नः) हमें (ईरसे) प्रेरित कर ॥२॥

भावार्थ : मनुष्यों को चाहिए कि लोभवृत्तियों को छोड़कर ऋण समय पर चुकायें और वीरता-पूर्वक शत्रुओं को पराजित करें ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : ऋण त्रसदस्यू | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : त्रिपदा अनुष्टुप्पिपी लिकामध्या | स्वर : गान्धारः

विषय : अथ स्वान्तरात्मा वीरपुरुषश्च वीरकर्मकरणाय प्रोत्साह्यते।

पदपाठ : परि। उ। सु। प्र। धन्व। वाजसातये ।वाज। सातये। परि। वृत्राणि। सक्षणिः।स। क्षणिः।। द्विषः। तरध्यै। ऋणयाः।ऋण।याः। नः। ईरसे ।२।

पदार्थ : हे (सोम) मदीय अन्तरात्मन् वीरपुरुष वा ! त्वम् (वाजसातये२) संग्रामाय, शत्रुभिः सह योद्धुमित्यर्थः। वाजसातिरिति संग्रामनाम। निघं० २।१७। वाजानां बलानां धनानां वा सातिः प्राप्तिर्यस्मिन् स वाजसातिः संग्रामः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (उ सु) सम्यक् (परि प्र धन्व) परि प्रयाहि, परितः प्रयाणं कुरु। (सक्षणिः३) क्षणिः हिंसा क्षणोतेः, तया सहितः सक्षणिः, हिंसकः त्वम् (वृत्राणि) आवरकाणि पापानि (परि) परिधन्व सर्वतः आक्रमस्व। (ऋणयाः४) ऋणानां यापयिता त्वम्। ऋणोपपदात् ण्यर्थगर्भात् या धातोः, क्विपि रूपम्। (द्विषः) लोभादीन् द्वेष्टॄन् (तरध्यै) तर्तुम्। तरतेः ‘तुमर्थे सेसेनसे अ० ३।४।९’ इति अध्यै प्रत्ययः। (नः) अस्मान् (ईरसे) प्रेरय। ईर गतौ कम्पने च धातोर्लेटि अडागमे रूपम् ॥२॥

भावार्थ : मनुष्यैर्लोभवृत्तिं परित्यज्य ऋणानि समये प्रतियातनीयानि वीरतया शत्रवश्च पराजेतव्याः ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।११०।१ ‘ईरसे’ इत्यत्र ‘ईयसे’ इति पाठः। साम० १३६४।२. वाजसातये अस्मभ्यमन्नदानायैव परिप्रधन्व परितः प्रगच्छ। यद्वा अन्नलाभाय संग्रामं संग्रामं प्रगच्छ—इति सा०।३. अभिभावुकः—इति भ०। सहनशीलः—इति सा०। षहतेरभिभवार्थात् तद्व्युत्पत्तिस्तयोरभिमता। अस्माभिस्तु ‘सक्षणिः’ इति पदकारमनुसृत्य व्याख्यातम्।४. यत्तु सत्यव्रतसामश्रमिण आहुः ‘‘ऋणया’ इति तु ‘सुपां सुलुगित्यादिना’ सुपोऽयाचि साधितुं बहु सुकरं यथा कौमुद्यां दर्शितं च स्वप्नयेति’’, तन्न सङ्गच्छते, पदपाठे ‘ऋणयाः’ इति सविसर्गस्य दर्शनात्।