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Samveda/436

पवस्व सोम द्युम्नी सुधारो महा अवीनामनुपूर्व्यः॥४३६

Veda : Samveda | Mantra No : 436

In English:

Seer : RRiNa trasadasyuu | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : dvipadaa viraaT tripadaa anuShTuppipiilikaamadhyaa | Tone : pa~nchamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : pavasva soma dyumnii sudhaaro mahaa.m aviinaamanupuurvyaH.436

Component Words :
pavasva.soma.dyumnii. sudhaaraH.su.dhaaraH. mahaan. aviinaam. anu. puurvyaH.. aaapamiidashati

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : ऋण त्रसदस्यू | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : द्विपदा विराट् त्रिपदा अनुष्टुप्पिपीलिकामध्या | स्वर : पञ्चमः

विषय : अगले मन्त्र का पवमान सोम देवता है। सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।

पदपाठ : पवस्व।सोम।द्युम्नी। सुधारः।सु।धारः। महान्। अवीनाम्। अनु। पूर्व्यः।१०। आ.४०.अ.१५.प.१३४.मी.दशति.५.

पदार्थ : हे (सोम) आनन्दरसागार परमात्मन् ! (द्युम्नी) यशस्वी, (अवीनां महान्) बहुत-सी भूमियों से भी अधिक महान्, (पूर्व्यः) सनातन, (सुधारः) आनन्दरस की उत्तम धारों सहित आप (पवस्व) मेरे हृदय में परिस्रुत हों ॥१०॥

भावार्थ : समाहित मन से निरन्तर उपासना किया गया रसनिधि परमेश्वर आनन्द की बौछारों के साथ हृदय में बरसता है ॥१०॥इस दशति में सोम नाम से परमात्मा की रसमयता का वर्णन करके उससे आनन्दरस और पवित्रता की याचना होने से, अग्नि नाम से उसके तेजोमय रूप का वर्णन होने से, और मरुतों के नाम से प्राणादि का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥पञ्चम प्रपाठक में प्रथम अर्ध की पञ्चमी दशति समाप्त ॥प्रथम अर्ध समाप्त हुआ ॥चतुर्थ अध्याय में नवम खण्ड समाप्त ॥


In Sanskrit:

ऋषि : ऋण त्रसदस्यू | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : द्विपदा विराट् त्रिपदा अनुष्टुप्पिपीलिकामध्या | स्वर : पञ्चमः

विषय : अथ पवमानः सोमो देवता। सोमः परमात्मा प्रार्थ्यते।

पदपाठ : पवस्व।सोम।द्युम्नी। सुधारः।सु।धारः। महान्। अवीनाम्। अनु। पूर्व्यः।१०। आ.४०.अ.१५.प.१३४.मी.दशति.५.

पदार्थ : हे (सोम) आनन्दरसागार परमात्मन् ! (द्युम्नी) यशस्वी। ‘द्युम्नं द्योततेः यशो वाऽन्नं वा’ इति यास्कः। निरु० ५।५। (अवीनां महान्) समवेतानां वह्नीनां पृथिवीनामपि विशालतरः। इयं (पृथिवी) वा अविः, इयं हीमाः सर्वाः प्रजा अवति। श० ६।१।२।३३। (पूर्व्यः) पूर्वस्मिन्नपि काले भवः, सनातनः इत्यर्थः, त्वम् (सुधारः) शोभनाभिः आनन्दरसधाराभिः सहितः (पवस्य) मम हृदये परिस्रव ॥१०॥

भावार्थ : समाहितेन मनसा सततमुपासितो रसनिधिः परमेश्वर आनन्दधाराभिर्हृदये वर्षति ॥१०॥अत्र सोमनाम्ना परमात्मनो रसमयत्वमुपवर्ण्य तत आनन्दरसस्य पवित्रतायाश्च याचनात्, अग्निनाम्ना तस्य तेजोमयत्ववर्णनाद्, मरुन्नाम्ना प्राणादीनां च वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति विज्ञेयम् ॥इति पञ्चमे प्रपाठके प्रथमार्द्धे पञ्चमी दशतिः ॥इति प्रथमोऽर्द्धः ॥इति चतुर्थेऽध्याये नवमः खण्डः ॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।१०९।७, ‘महाँ अवीनामन्’ इत्यत्र ‘महामवीनामनु’ इति पाठः।