Donation Appeal
Choose Mantra
Samveda/455

ऊर्जा मित्रो वरुणः पिन्वतेडाः पीवरीमिषं कृणुही न इन्द्र॥४५५

Veda : Samveda | Mantra No : 455

In English:

Seer : aatreyaH | Devta : vishvedevaaH | Metre : dvipadaa triShTup | Tone : dhaivataH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : uurjaa mitro varuNaH pinvateDaaH piivariimiSha.m kRRiNuhii na indra.455

Component Words :
uurjaa. mitraH.mi.traH. varuNaH . pinvata. iDaaH. piivariim. iSham. kRRiNuhi. naH. indra . .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : आत्रेयः | देवता : विश्वेदेवाः | छन्द : द्विपदा त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अगले मन्त्र के देवता विश्वेदेवाः हैं। इसमें यह विषय है कि इन्द्र, मित्र और वरुण हमारे लिए क्या करें।

पदपाठ : ऊर्जा। मित्रः।मि।त्रः। वरुणः । पिन्वत। इडाः। पीवरीम्। इषम्। कृणुहि। नः। इन्द्र । ९।

पदार्थ : प्रथम—परमात्मा आदि के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! आप, (मित्रः) सूर्य और (वरुणः) वायु, मिलकर (ऊर्जा) रस से (इडाः) भूमियों को (पिन्वत) सींचो। हे इन्द्र परमात्मन् ! आप (नः) हमारे लिए (पीवरीम्) प्रचुर (इषम्) धान्य-सम्पत्ति को (कृणुहि) उत्पन्न करो, जिससे हम दुर्भिक्ष आदि से पीड़ित न हों ॥द्वितीय—शरीर के पक्ष में। हे (इन्द्र) मेरे जीवात्मन् ! तू, (मित्रः) प्राण और (वरुणः) अपान मिलकर (ऊर्जा) बल के साथ (इडाः) मधुर वाणियों को (पिन्वत) प्रेरित करो। हे इन्द्र जीवात्मन् ! तू (नः) हमारे लिए (पीवरीम्) प्रचुर (इषम्) ज्ञान-सम्पदा को (कृणुहि) उत्पन्न कर ॥तृतीय—राष्ट्र के पक्ष में। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् राजन् ! आप (मित्रः) राजमन्त्री और (वरुणः) सेनापति, मिलकर (ऊर्जा) अन्न के साथ (इडाः) भूमियों और गौओं को (पिन्वत) बहुतायत से प्रदान करो। हे इन्द्र राजन् ! आप (इषम्) प्रजा को (पीवरीम्) समृद्ध (कृणुहि) करो ॥९॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥

भावार्थ : परमात्मा, जीवात्मा और राजा मन, बुद्धि, प्राण, अपान, सूर्य, वायु, सचिव, सेनापति आदियों के साथ मिलकर भोज्य, पेय, बल, वाणी, भूमि, गाय आदि सम्पदाओं से हमें समृद्ध करें ॥९॥

टिप्पणी :अगले मन्त्र में इन्द्र के महत्त्व का वर्णन है।


In Sanskrit:

ऋषि : आत्रेयः | देवता : विश्वेदेवाः | छन्द : द्विपदा त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अथ विश्वेदेवा देवताः। इन्द्रमित्रवरुणा अस्मभ्यं किं कुर्वन्त्वित्याह।

पदपाठ : ऊर्जा। मित्रः।मि।त्रः। वरुणः । पिन्वत। इडाः। पीवरीम्। इषम्। कृणुहि। नः। इन्द्र । ९।

पदार्थ : प्रथमः—परमात्मादिपरः। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् परमात्मन् ! त्वम्, (मित्रः) सूर्यः, (वरुणः) वायुश्च संभूय (ऊर्जा) रसेन। ऊर्ग् वा आपो रसः। कौ० ब्रा० १२।१। (इडाः) भूमीः। इडा इति पृथिवीनाम। निघं० १।१। (पिन्वत) सिञ्चत। पिवि सेवने सेचने च, भ्वादिः। हे इन्द्र परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (पीवरीम्) स्थूलां, प्रचुरामित्यर्थः (इषम्) सस्यसम्पदम् (कृणुहि) कुरु, येन वयं दुर्भिक्षादिभिर्न पीड्येमहि ॥अथ द्वितीयः—शरीरपरः। हे (इन्द्र) मदीय जीवात्मन् ! त्वम्, (मित्रः) प्राणः, (वरुणः) अपानश्च। प्राणापानौ मित्रावरुणौ। तां० ब्रा० ६।१०।५। संभूय (ऊर्जा) बलेन। ऊर्ज बलप्राणनयोः, चुरादिः। (इडाः) मधुरा वाचः। इडा इति वाङ्नाम। निघं० १।११। (पिन्वत) प्रेरयत। हे मदीय अन्तरात्मन् ! त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (पीवरीम्) प्रचुराम् (इषम्) ज्ञानसम्पत्तिम् (कृणुहि) कुरु ॥अथ तृतीयः—राष्ट्रपरः। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् राजन् ! त्वम्, (मित्रः) अमात्यः, (वरुणः) सेनापतिश्च, संभूय (ऊर्जा) अन्नेन सह। ऊर्क् इति अन्ननाम। निघं० २।७। (इडाः) भूमीः धेनूश्च। इडा इति पृथिवीनाम गोनाम च। निघं० १।१, २।११। (पिन्वत) बाहुल्येन प्रयच्छत। हे इन्द्र राजन् ! त्वम् (इषम्) प्रजाम्। प्रजा वा इषः। श० १।७।३।१४। (पीवरीम्) समृद्धाम् (कृणुहि) कुरु ॥९॥अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥

भावार्थ : परमात्मा जीवात्मा नृपतिश्च मनोबुद्धिप्राणापानसूर्यवायुसचिव- सेनापत्यादिभिः सह संभूय भोज्यपेयबलवाग्भूमिधेन्वादिसम्पद्भिः सर्वान् समृद्धान् कुर्वन्तु ॥९॥

टिप्पणी:अथेन्द्रस्य महत्त्वमाह।