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Samveda/496

परि द्युक्ष सनद्रायिं भरद्वाजं नो अन्धसा। स्वानो अर्ष पवित्र आ॥४९६

Veda : Samveda | Mantra No : 496

In English:

Seer : uchathya aa~NgirasaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : pari dyukSha.m sanadraayi.m bharadvaaja.m no andhasaa . svaano arSha pavitra aa.496

Component Words :
pari.dyukSham. dyu. kSham. sanat. rayim. bharat. vaajam. naH. andhasaa. svaanaH. arSha . pavitre. aa.. aaapadhaadashati..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : उचथ्य आङ्गिरसः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : परमात्मा-रूप सोम क्या-क्या प्रदान करे, यह कहते हैं।

पदपाठ : परि।द्युक्षम्। द्यु। क्षम्। सनत्। रयिम्। भरत्। वाजम्। नः। अन्धसा। स्वानः। अर्ष । पवित्रे। आ।१०। आ.४४.अ.९.प.१२२.धा.दशति।१।

पदार्थ : हे सोम ! हे रसागार परमात्मन् ! (द्युक्षम्) दीप्ति के निवासक (रयिम्) दिव्य ऐश्वर्य को (सनत्) देते हुए, और (अन्धसा) आनन्द-रस के साथ (नः) हमारे लिए (वाजम्) आत्म-बल को (भरत्) लाते हुए, (स्वानः) झरते हुए, आप (पवित्रे) दशापवित्र के तुल्य पवित्र हृदय में (आ अर्ष) आओ ॥१०॥

भावार्थ : उपासक के हृदय में परमात्मा से झरा आनन्द-रस अनुपम ऐश्वर्य, ब्रह्मवर्चस और आत्मबल आदि प्रदान करता है ॥१०॥इस दशति में परमात्मा-रूप सोम और उससे झरे हुए आनन्द, वीरता आदि के रस का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥षष्ठ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥पञ्चम अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥


In Sanskrit:

ऋषि : उचथ्य आङ्गिरसः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ परमात्मसोमः किं किं प्रयच्छेदित्याह।

पदपाठ : परि।द्युक्षम्। द्यु। क्षम्। सनत्। रयिम्। भरत्। वाजम्। नः। अन्धसा। स्वानः। अर्ष । पवित्रे। आ।१०। आ.४४.अ.९.प.१२२.धा.दशति।१।

पदार्थ : हे सोम ! हे रसागार परमात्मन् ! (द्युक्षम्) दीप्तेनिवासकम् (रयिम्) दिव्यम् ऐश्वर्यम् (सनत्) प्रयच्छन्, किञ्च (अन्धसा) आनन्दरसेन सह (नः) अस्मभ्यम् (वाजम्) आत्मबलम् (भरत्) आहरन् (स्वानः) अभिषूयमाणः, निर्झरन्, त्वम्, (पवित्रे) दशापवित्रे इव पवित्रे हृदये (आ अर्ष) आगच्छ ॥१०॥

भावार्थ : उपासकस्य हृदये परमात्मनः सकाशात् प्रस्रुत आनन्दरसोऽनुपममैश्वर्यं ब्रह्मवर्चसम् आत्मबलादिकं च प्रयच्छति ॥१०॥अत्र परमात्मरूपस्य सोमस्य, ततः प्रस्रुतस्यानन्दवीरत्वादिरसस्य च वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥१०॥इति षष्ठे प्रपाठके प्रथमार्द्धे प्रथमा दशतिः ॥इतिपञ्चमेऽध्याये तृतीयः खण्डः ॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।५२।१, ‘द्युक्षं सनद् रयि’, ‘स्वानो’, इत्यत्र क्रमेण ‘द्युक्षः सनद्रयिः’, ‘सुवानो’ इति पाठः।