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Samveda/502

अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः । रुचे जनन्त सूर्यम्॥५०२

Veda : Samveda | Mantra No : 502

In English:

Seer : asitaH kaashyapo devalo vaa | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : anu pratnaasa aayavaH pada.m naviiyo akramuH . ruche jananta suuryam.502

Component Words :
anu. pratnaasaH . aayavaH. padam. naviiyaH. akramuH . ruche. jananta. suuryam . .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : असितः काश्यपो देवलो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अब यह वर्णन है कि परमात्मा की सहायता से मनुष्य क्या प्राप्त कर लेते हैं।

पदपाठ : अनु। प्रत्नासः । आयवः। पदम्। नवीयः। अक्रमुः । रुचे। जनन्त। सूर्यम् । ६।

पदार्थ : सोम परमात्मा की सहायता से (प्रत्नासः) ज्ञान की दृष्टि से पुरातन अर्थात् ज्ञानवृद्ध मनुष्य (नवीयः) नवीनतर (पदम्) राजमन्त्री, न्यायाधीश आदि के पद को अथवा मोक्षपद को (अनु अक्रमुः) अनुकूलतापूर्वक प्राप्त कर लेते हैं, और (रुचे) प्रकाश के लिए, वे सूर्यम् विद्या के सूर्य को अथवा अध्यात्म के सूर्य को (जनन्त) प्रकट कर देते हैं ॥६॥इस मन्त्र में ‘बूढ़े जीर्ण लोग नवीन पद को प्राप्त करते हैं’ में नवीन पद की प्राप्ति के हेतु के अभाव में भी उसकी प्राप्ति का वर्णन होने से विभावनालङ्कार ध्वनित हो रहा है। ‘मनुष्य सूर्य को उत्पन्न करते हैं’ में मनुष्यों द्वारा सूर्य का उत्पन्न किया जाना असम्भव होने से सूर्य की विद्या-प्रकाश अथवा अध्यात्म-प्रकाश में लक्षणा है ॥६॥

भावार्थ : परमात्मा की कृपा से और अपने पुरुषार्थ से मनुष्य सांसारिक उच्च से उच्च पद को और परम मुक्तिपद को भी प्राप्त करने तथा राष्ट्र और जगत् में ज्ञान-विज्ञान एवं सदाचार के सूर्य को प्रकट करने में समर्थ हो जाते हैं ॥६॥


In Sanskrit:

ऋषि : असितः काश्यपो देवलो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ सोमस्य परमात्मनः साहाय्येन जनाः किं प्राप्नुवन्तीत्याह।

पदपाठ : अनु। प्रत्नासः । आयवः। पदम्। नवीयः। अक्रमुः । रुचे। जनन्त। सूर्यम् । ६।

पदार्थ : सोमस्य परमात्मनः साहाय्येन (प्रत्नासः) प्रत्नाः ज्ञानेन पुराणाः (आयवः) मनुष्याः (नवीयः) नूतनतरम् (पदम्) अमात्यन्यायाधीशत्वादिरूपं मोक्षरूपं वा। तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः। ऋ० १।२२।२० इति श्रुतेः। (अनु अक्रमुः) आनुकूल्येन प्राप्नुवन्ति। (रुचे) प्रकाशाय, ते (सूर्यम्) विद्यासूर्यम् अध्यात्मसूर्यं वा (जनन्त) प्रकटयन्ति। जनी प्रादुर्भावे णिजन्तः, लडर्थे लङ्, अडभावः, णेर्लुक् ॥६॥अत्र ‘प्रत्नासः वृद्धा जीर्णा जनाः नवीयः पदम् अक्रमुः’ इति नवीनतरपदप्राप्तिहेत्वभावेऽपि तत्प्राप्तिवर्णनाद् विभावनालङ्कारो ध्वन्यते। किञ्च, ‘आयवः मनुष्याः सूर्यं जनन्त’ इत्यत्र मनुष्याणां सूर्यजननासंभवात् सूर्यस्य विद्याप्रकाशेऽध्यात्मप्रकाशे वा लक्षणा ॥६॥

भावार्थ : परमात्मनः कृपया स्वपुरुषार्थेन च मनुष्याः सांसारिकमुच्चोच्चपदं परमं मुक्तिपदं चापि प्राप्तुं, राष्ट्रे जगति च ज्ञानविज्ञानस्य सदाचारस्य च सूर्यं जनयितुं क्षमन्ते ॥६॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।२३।२, ऋषिः असितः काश्यपो देवलो वा।