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Samveda/532

पवस्व सोम मधुमा ऋतावापो वसानो अधि सानो अव्ये। अव द्रोणानि घृतवन्ति रोह मदिन्तमो मत्सर इन्द्रपानः॥५३२

Veda : Samveda | Mantra No : 532

In English:

Seer : pratardano daivodaasiH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : triShTup | Tone : dhaivataH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : pavasva soma madhumaa.m RRitaavaapo vasaano adhi saano avye . ava droNaani ghRRitavanti roha madintamo matsara indrapaanaH.532

Component Words :
pavasva . soma. madhumaan. RRitaavaa.apaH. vasaanaH. adhi. saanau. avye. ava. droNaani . ghRRitavanti. roha . madintamaH. matsaraH. indrapaanaH.indra.paanaH. . aaapaChadashati..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : प्रतर्दनो दैवोदासिः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अगले मन्त्र में परमात्मा-रूप सोम को कहा जा रहा है।

पदपाठ : पवस्व । सोम। मधुमान्। ऋतावा।अपः। वसानः। अधि। सानौ। अव्ये। अव। द्रोणानि । घृतवन्ति। रोह । मदिन्तमः। मत्सरः। इन्द्रपानः।इन्द्र।पानः। १०। आ.६७.अ.१७.प.२११.छ.दशति।४।

पदार्थ : हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (मधुमान्) मधुर आनन्द से युक्त, (ऋतावा) सत्यमय आप (पवस्व) हमारे प्रति झरो अथवा हमें पवित्र करो। (अपः) हमारे कर्मों को (वसानः) आच्छादित करते हुए आप (अव्ये) अविनाशी (सानौ) उन्नत आत्मा में (अधि) अधिरोहण करो। (मदिन्तमः) अतिशय आनन्दमय, (मत्सरः) आनन्दप्रद, (इन्द्रपानः) जीवात्मा से पान किये जाने योग्य आप (घृतवन्ति) तेजोमय (द्रोणानि) इन्द्रिय, मन, प्राण रूप द्रोणकलशों में (अवरोह) अवरोहण करो ॥१०॥

भावार्थ : यहाँ श्लेष से सोम ओषधि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए। परमात्मा सोम ओषधि के सदृश मधुर रस का भण्डार है। जैसे सोम ओषधि का रस जलों से मिलकर भेड़ के बालों से बने दशापवित्र में परिस्रुत होकर द्रोणकलशों में जाता है, वैसे ही परमात्मा हमारे कर्मों से संसृष्ट होकर आत्मा में परिस्रुत हो इन्द्रिय, मन, प्राण रूप द्रोणकलशों में अवरोहण करता है ॥१०॥इस दशति में भी सोम परमात्मा तथा उससे अभिषुत आनन्दरस का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥षष्ठ प्रपाठक, प्रथम अर्ध में चतुर्थ दशति समाप्त ॥पञ्चम अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥


In Sanskrit:

ऋषि : प्रतर्दनो दैवोदासिः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : त्रिष्टुप् | स्वर : धैवतः

विषय : अथ परमात्मरूपं सोममाह।

पदपाठ : पवस्व । सोम। मधुमान्। ऋतावा।अपः। वसानः। अधि। सानौ। अव्ये। अव। द्रोणानि । घृतवन्ति। रोह । मदिन्तमः। मत्सरः। इन्द्रपानः।इन्द्र।पानः। १०। आ.६७.अ.१७.प.२११.छ.दशति।४।

पदार्थ : हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (मधुमान्) मधुमयानन्दरसोपेतः, (ऋतावा) सत्यवान् त्वम्। अत्र ऋतशब्दात् ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ’ अ० ५।२।१०९ इति वनिप्। ‘अन्येषामपि दृश्यते’ अ० ६।३।१३७ इति ऋताऽकारस्य दीर्घः। (पवस्व) अस्मान् प्रति परिस्रव, अस्मान् पुनीहि वा। (अपः) अस्माकं कर्माणि (वसानः) स्वात्मना आच्छादयन् (अव्ये) अव्यये अविनाशिनि (सानौ२) उन्नते आत्मनि (अधि) अधिरोह। (मदिन्तमः) अतिशयेन आनन्दमयः, (मत्सरः) आनन्दप्रदः, (इन्द्रपानः) इन्द्रेण जीवात्मना पातव्यः त्वम् (घृतवन्ति३) तेजोमयानि (द्रोणानि) इन्द्रियमनःप्राणरूपान् द्रोणकलशान् (अवरोह) अवाप्नुहि ॥१०॥

भावार्थ : श्लेषेण सोमौषधिपक्षेऽपि योजनीयम्। परमात्मा सोमौषधिवद् मधुररसागारो विद्यते। यथा सोमौषधिरसो जलैः संसृज्य अविबालमये पवित्रे परिस्रुतः सन् द्रोणकलशानवरोहति तथा परमात्मसोमोऽस्माकं कर्मभिः संसृज्यात्मरूपे पवित्रे परिस्रुत इन्द्रियमनःप्राणरूपान् द्रोणकलशानवरोहति ॥१०॥अत्रापि सोमस्य परमात्मनः ततोऽभिषुतस्यानन्दरसस्य च वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति षष्ठे प्रपाठके प्रथमार्धे चतुर्थी दशतिः ॥इति पञ्चमेऽध्याये षष्ठः खण्डः ॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।९६।१३ ‘घृतवन्ति रोह’ इत्यत्र ‘घृतवान्ति सीद’ इति पाठः।२. ऋग्वेदिनः सामवेदिनश्चोभयेऽपि ‘सानो अव्ये’ इत्यस्य ‘सानौ अव्ये’ इति पदपाठमामनन्ति। द्रष्टव्या, ५२९ मन्त्रभाष्ये टिप्पणी।३. घृतवन्ति उदकवन्ति—इति वि०। दीप्तिमन्ति—इति भ०।