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Samveda/555

अचोदसो नो धन्वन्त्विन्दवः प्र स्वानासो बृहद्देवेषु हरयः। वि चिदश्नाना इषयो अरातयोऽर्यो नः सन्तु सनिषन्तु नो धियः॥५५५

Veda : Samveda | Mantra No : 555

In English:

Seer : kavirbhaargavaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : jagatii | Tone : niShaadaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : achodaso no dhanvantvindavaH pra svaanaaso bRRihaddeveShu harayaH . vi chidashnaanaa iShayo araatayo.aryo naH santu saniShantu no dhiyaH.555

Component Words :
achodasaH .a.chodasaH. naH. dhanvantu. indavaH. pra. svaanaasaH. bRRihat. deveShu. harayaH. vi. chit. ashnaanaaH . iShayaH. araatayaH.a.raatayaH.aryaH. naH. santu. saniShantu. naH. dhiyaH..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : कविर्भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : जगती | स्वर : निषादः

विषय : अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्दरस आदि की याचना है।

पदपाठ : अचोदसः ।अ।चोदसः। नः। धन्वन्तु। इन्दवः। प्र। स्वानासः। बृहत्। देवेषु। हरयः। वि। चित्। अश्नानाः । इषयः। अरातयः।अ।रातयः।अर्यः। नः। सन्तु। सनिषन्तु। नः। धियः।२।

पदार्थ : (अचोदसः) अन्य किसी से अप्रेरित अर्थात् स्वभाव से निकले हुए, (स्वानासः) शब्दकारी अर्थात् दिव्य सन्देश सुनानेवाले, (हरयः) पापहारी (इन्दवः) ब्रह्मानन्दरस (नः) हमारे (देवेषु) राष्ट्र के विद्वानों में और शरीर के मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि में (बृहत्) बहुत अधिक (प्र धन्वन्तु) भली-भाँति प्राप्त हों। (इषयः) केवल भोग की इच्छा करनेवाले, (अश्नानाः) स्वयं खाते रहनेवाले (अरातयः) अदानशील (नः अर्यः) हमारे आत्मिक और बाह्य शत्रु (वि चित् सन्तु) हमसे दूर ही हो जाएँ, और (धियः) सद्विचार (नः) हमें (सनिषन्तु) प्राप्त हों ॥२॥इस मन्त्र में नकार आदि की अनेक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है। ‘नः सन्तु निषन्तु’ में छेकानुप्रास है ॥२॥

भावार्थ : हमें चाहिए कि दुर्विचार रूप, कामक्रोधादि रूप और चोर-ठग आदि रूप शत्रुओं को दूर करें, सद्विचारों को पल्लवित करें और ब्रह्मानन्दरसों को अपने आत्मा में प्रवाहित करें ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : कविर्भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : जगती | स्वर : निषादः

विषय : अथ ब्रह्मानन्दरसादीन् प्रार्थयते।

पदपाठ : अचोदसः ।अ।चोदसः। नः। धन्वन्तु। इन्दवः। प्र। स्वानासः। बृहत्। देवेषु। हरयः। वि। चित्। अश्नानाः । इषयः। अरातयः।अ।रातयः।अर्यः। नः। सन्तु। सनिषन्तु। नः। धियः।२।

पदार्थ : (अचोदसः) अन्येन केनापि अप्रेरिताः स्वभावनिःसृता इत्यर्थः, (स्वानासः) शब्दकारिणः दिव्यसन्देशवाहिनः इत्यर्थः। स्वनन्ति शब्दायन्ते इति स्वानाः, त एव स्वानासः। (हरयः) पापहारिणः (इन्दवः) ब्रह्मानन्दरसाः (नः) अस्माकम् (देवेषु) राष्ट्रस्य विद्वत्सु, शरीरस्य मनोबुद्धीन्द्रियादिषु वा (बृहत्) बहु (प्र धन्वन्तु) प्रकृष्टतया प्राप्नुवन्तु। धन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। (इषयः) भोगेच्छामात्रपरायणाः। इषु इच्छायाम्। (अश्नानाः) स्वयमेव भुञ्जानाः, (अरातयः) अदानशीलाः (नः अर्यः) अस्माकम् अरयः आध्यात्मिका बाह्याश्च शत्रवः। अत्र ‘जसादिषु छन्दसि वावचनं प्राङ् णौ चङ्युपधायाः। अ० ७।३।१०९ वा०’ इति गुणाभावे यणि रूपम्। (वि चित् सन्तु) अस्मत्तो दूरे एव भवन्तु, (धियः) सद्विचाराश्च (नः) अस्मान् (सनिषन्तु) संभजन्तु। षण सम्भक्तौ भ्वादिः, लोटि सनन्तु इति प्राप्ते बहुलं सिब्विकरणे रूपम् ॥२॥अत्र नकारादीनामसकृदावर्तनाद् वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः। ‘नः सन्तु, नि षन्तु’ इति च छेकानुप्रासः ॥२॥

भावार्थ : अस्माभिर्दुर्विचाररूपाः कामक्रोधादिरूपास्तस्करवञ्चकादिरूपाश्च शत्रवोऽपनेयाः, सद्विचाराः पल्लवनीयाः, ब्रह्मानन्दरसाश्च स्वात्मनि प्रवाहयितव्याः ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।७९।१, ‘प्र सुवानासो बृहद्दिवेषु हरयः। वि च नशन् च इषो अरातयोऽर्यो नशन्त सनिषन्त नो धियः ॥’ इति पाठः।