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Samveda/558

धर्ता दिवः पवते कृत्व्यो रसो दक्षो देवानामनुमाद्यो नृभिः। हरिः सृजानो अत्यो न सत्वभिर्वृथा पाजासि कृणुषे नदीष्वा॥५५८

Veda : Samveda | Mantra No : 558

In English:

Seer : kavirbhaargavaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : jagatii | Tone : niShaadaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : dhartaa divaH pavate kRRitvyo raso dakSho devaanaamanumaadyo nRRibhiH . hariH sRRijaano atyo na satvabhirvRRithaa paajaa.m si kRRiNuShe nadiiShvaa.558

Component Words :
dhartaa . divaH. pavate. kRRitvyaH. rasaH. dakShaH . devaanaam. anumaadyaH.anu.maadyaH. nRRibhiH. hariH. sRRijaanaH. atyaH.na. satvabhiH.vRRithaa. paajaa.Nsi. kRRiNuShe. nadiiShu.aa..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : कविर्भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : जगती | स्वर : निषादः

विषय : अगले मन्त्र में सोम परमात्मा के कर्मों का वर्णन है।

पदपाठ : धर्ता । दिवः। पवते। कृत्व्यः। रसः। दक्षः । देवानाम्। अनुमाद्यः।अनु।माद्यः। नृभिः। हरिः। सृजानः। अत्यः।न। सत्वभिः।वृथा। पाजाँसि। कृणुषे। नदीषु।आ।५।

पदार्थ : (दिवः) द्युलोक अथवा सूर्य का (धर्ता) धारण करनेवाला, (कृत्व्यः) कर्मकुशल, (रसः) आनन्द-रसमय, (देवानाम्) विद्वानों का (दक्षः) बलप्रदाता, (नृभिः) पुरुषार्थी मनुष्यों से (अनुमाद्यः) प्रसन्न किये जाने योग्य परमात्मा (पवते) सब जड़-चेतन जगत् को पवित्र करता है। आगे प्रत्यक्षकृत वर्णन है—(हरिः) आकर्षण के बल से सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि लोकों के नियामक, (सृजानः) जगत् की रचना करनेवाले आप (वृथा) अनायास ही (सत्वभिः) अपने बलों से (नदीषु) नदियों में (पाजांसि) बलों और वेगों को (आ कृणुषे) स्थापित करते हो, (अत्यः न) जैसे घोड़ा रथ आदि में वेगों को स्थापित करता है ॥५॥इस मन्त्र में लक्षणावृत्ति से रस का अर्थ रसवान् और दक्ष का अर्थ दक्षकारी है। ‘अत्यो न’ में उपमालङ्कार है ॥५॥

भावार्थ : जो परमेश्वर सारे संसार को रचनेवाला, धारण करनेवाला और बल, वेग आदि देनेवाला है, उसकी सब मनुष्य आराधना क्यों न करें? ॥५॥


In Sanskrit:

ऋषि : कविर्भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : जगती | स्वर : निषादः

विषय : अथ सोमस्य परमात्मनः कर्माण्याह।

पदपाठ : धर्ता । दिवः। पवते। कृत्व्यः। रसः। दक्षः । देवानाम्। अनुमाद्यः।अनु।माद्यः। नृभिः। हरिः। सृजानः। अत्यः।न। सत्वभिः।वृथा। पाजाँसि। कृणुषे। नदीषु।आ।५।

पदार्थ : (दिवः) द्युलोकस्य सूर्यस्य वा (धर्ता) धारयिता, (कृत्व्यः२) कर्मसु साधुः, कर्मकुशलः। कृत्वी इति कर्मनाम। निघं० २।१। तत्र साधुः कृत्व्यः। साध्वर्थे यत्। (रसः) आनन्दरसमयः, (देवानाम्) विदुषाम् (दक्षः) बलप्रदः। दक्ष इति बलनाम। निघं० २।९। (नृभिः) पुरुषार्थिभिः मनुष्यैः (अनुमाद्यः) प्रसाद्यः सोमः परमात्मा (पवते) जडचेतनात्मकं सर्वं जगत् पुनाति। अथ प्रत्यक्षकृतमाह। (हरिः) आकर्षणबलेन सूर्यचन्द्रपृथिव्यादिलोकानां नियन्ता (सृजानः) जगत् रचयन् त्वम् (वृथा) अनायासेन (सत्वभिः) स्वकीयैः बलैः (नदीषु) सरित्सु (पाजांसि) बलानि वेगान् वा। पाजः इति बलनाम। निघं० २।९। (आ कृणुषे) आकरोषि। तदेव उपमिमीते, (अत्यः न) अश्वः इव। अश्वो यथा रथादिषु वेगान् आकृणुते तद्वदित्यर्थः। अत्यः इत्यश्वनाम। निघं० १।१४ ॥५॥अत्र रसः रसवान् दक्षः दक्षकारी इत्यत्र क्रमेण तद्वति तत्कारिणि च लक्षणा। ‘अत्यो न’ इत्युपमा ॥५॥

भावार्थ : यः परमेश्वरः सर्वस्य जगतः स्रष्टा धर्ता बलवेगादिप्रदश्चास्ति स सर्वैर्जनैः कुतो नाराधनीयः ॥५॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।७६।१, ‘कृणुषे’ इत्यत्र ‘कृणुते’ इति पाठः। साम० १२२८।२. कृत्व्यान् कर्मसु साधून् इति ऋ० १।१२१।७ भाष्ये दयानन्दः। कृत्व्यः संस्कृतः—इति भ०। कर्तव्यः शोध्य इत्यर्थः—इति सा०।