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Samveda/632

त्रिशषद्धाम वि राजति वाक्पतङ्गाय धीयते। प्रति वस्तोरह द्युभिः॥६३२

Veda : Samveda | Mantra No : 632

In English:

Seer : saarparaaj~nii | Devta : suuryaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : tri.m shaddhaama vi raajati vaakpata~Ngaaya dhiiyate . prati vastoraha dyubhiH.632

Component Words :
tri.Nshat. dhaama. vi. raajati. vaak. pata~Ngaaya. dhiiyate. prati. vastoH. aha. dyubhiH..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : सार्पराज्ञी | देवता : सूर्यः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में पुनः सूर्य और परमात्मा का वर्णन है।

पदपाठ : त्रिँशत्। धाम। वि। राजति। वाक्। पतङ्गाय। धीयते। प्रति। वस्तोः। अह। द्युभिः।६।

पदार्थ : यह सूर्य वा परमात्मा (त्रिंशद् धाम) मास के तीसों दिन-रातों में (वि राजति) विशेष रूप से भासित होता है। उस (पतङ्गाय) अक्ष-परिभ्रमण करनेवाले सूर्य के लिए वा कर्मण्य परमात्मा के लिए अर्थात् उनका गुण-कर्म-स्वरूप वर्णन करने के लिए (वाक्) वाणी (धीयते) प्रयुक्त की जाती है। वह सूर्य और परमात्मा (प्रतिवस्तोः) प्रतिदिन (अह) ही (द्युभिः) किरणों वा तेजों से, सबको प्रकाशित करता है ॥६॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥६॥

भावार्थ : जैसे सूर्य प्रतिदिन द्युलोक, अन्तरिक्षलोक और भूलोक में प्रकाशित होता है, वैसे ही परमात्मा भी अपनी कृतियों से सर्वत्र यश से भासमान है। उस सूर्य और परमात्मा के गुण-कर्म आदि वर्णन करके लाभ सबको प्राप्त करने उचित हैं ॥६॥


In Sanskrit:

ऋषि : सार्पराज्ञी | देवता : सूर्यः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुरनपि सूर्यः परमात्मा च वर्ण्यते।

पदपाठ : त्रिँशत्। धाम। वि। राजति। वाक्। पतङ्गाय। धीयते। प्रति। वस्तोः। अह। द्युभिः।६।

पदार्थ : एष सूर्यः परमात्मा वा (त्रिंशद् धाम) मासस्य त्रिंशत्संख्यकेष्वपि अहोरात्रेषु (वि राजति) विशेषेण भासमानो भवति। त्रिंशद् धाम इत्यत्र ‘कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। अ० २।३।५’ इति द्वितीया। धाम इत्यत्र ‘शेश्छन्दसि बहुलम्। अ० ६।१।७०’ इति शिलोपः। तस्मै (पतङ्गाय) अक्षपरिभ्रमणशीलाय सूर्याय, कर्मयोगिने परमात्मने वा। पतति गच्छतीति पतङ्गः ‘पतेरङ्गच् पक्षिणि२। उ० १।११९’ इति पत धातोः अङ्गच् प्रत्ययः। चित्त्वादन्तोदात्तत्वम्। (वाक्) वाणी (धीयते) धार्य्यते, वाचा तद्गुणकर्मस्वरूपं वर्ण्यते इत्यर्थः। स सूर्यः परमात्मा च (प्रतिवस्तोः) प्रतिदिनम्। वस्तोः इत्यहर्नामसु पठितम्। निघं० १।९। (अह) एव (द्युभिः) किरणैः तेजोभिर्वा, सर्वं प्रकाशयति इति शेषः ॥६॥३अत्र श्लेषालङ्कारः ॥६॥

भावार्थ : यथा सूर्यः प्रतिदिनं दिव्यन्तरिक्षे भुवि च प्रकाशते, तथा परमात्मापि स्वकृतिभिः सर्वत्र यशसा भासते। तस्य सूर्यस्य परमात्मनश्च गुणकर्मादिकमुपवर्ण्य लाभाः सर्वैः प्राप्तव्याः ॥६॥

टिप्पणी:१. ऋ० १०।१८९।३ देवता सार्पराज्ञी सूर्यो वा। य० ३।८ ऋषिः सर्पराज्ञी कद्रूः, देवता अग्निः। साम० १३७८। अथ० ६।३१।३ ऋषिः उपरिबभ्रवः, देवता गौः। अथ० २०।४८।६ ऋषिः सर्पराज्ञी, देवता सूर्यः, गौः।२. पक्षिणीत्युच्यमानेऽपि बाहुलकात् ‘पतङ्गः सूर्योऽग्निरश्वः शलभः शालिभेदो वा’ इत्यादीनामपि नामानि भवन्ति’ इत्युणादिकोशव्याख्याने द०।३. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् यजुर्भाष्ये “या वाणी प्राणयुक्तेन शरीरस्थेन विद्युदाख्येनाग्निना नित्यं प्रकाश्यते सा तद्गुणप्रकाशाय विद्वद्भिर्नित्यमुपदेष्टव्या श्रोतव्या चेति” विषये व्याख्यातः।