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Samveda/647

इन्द्रं धनस्य सातये हवामहे जेतारमपराजितम्। स नः स्वर्षदति द्विषः स नः स्वर्षदति द्विषः॥६४७

Veda : Samveda | Mantra No : 647

In English:

Seer : prajaapatiH | Devta : indraH | Metre : viraaT | Tone : gaandhaaraH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : indra.m dhanasya saataye havaamahe jetaaramaparaajitam . sa naH svarShadati dviShaH sa naH svarShadati dviShaH.647

Component Words :
indram. dhanasya. saataye. havaamahe. jetaaram. aparaajitam.a.paraajitam. saH. naH. svarShat.ati. dviShaH. saH. naH. svarShat.ati dviShaH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : प्रजापतिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : विराट् | स्वर : गान्धारः

विषय : अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का आह्वान किया गया है।

पदपाठ : इन्द्रम्। धनस्य। सातये। हवामहे। जेतारम्। अपराजितम्।अ।पराजितम्। सः। नः। स्वर्षत्।अति। द्विषः। सः। नः। स्वर्षत्।अति द्विषः८।

पदार्थ : (इन्द्रम्) शूरवीर परमैश्वर्यशाली परमेश्वर को हम योगाभ्यासी जन (धनस्य) विवेकख्यातिरूप ऐश्वर्य की (सातये) प्राप्ति के लिए (हवामहे) पुकारते हैं। कैसे परमेश्वर को? (जेतारम्) जो शत्रुओं और विघ्नों का विजेता, तथा (अपराजितम्) करोड़ों भी शत्रुओं एवं विघ्नों से न हारनेवाला है। (सः) वह विजेता परमेश्वर (नः) हमें (द्विषः) अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश रूप पञ्च क्लेशों से (अति स्वर्षत्) पार कर दे, (सः) वह अपराजित परमेश्वर (नः) हमें (द्विषः) व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्त्व इन चित्तविक्षेपरूप योगमार्ग के विघ्नों से (अति स्वर्षत्) पार कर दे ॥७॥

भावार्थ : परमेश्वर की ही कृपा से योगाभ्यासी जन योग के विघ्नों को जीतकर विवेकख्याति द्वारा मोक्ष प्राप्त करने योग्य होते हैं ॥७॥

टिप्पणी :संन्यासाश्रम में प्रवेश का अभिलाषी कह रहा है।


In Sanskrit:

ऋषि : प्रजापतिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : विराट् | स्वर : गान्धारः

विषय : अथ पुनरपि परमात्मानमाह्वयति।

पदपाठ : इन्द्रम्। धनस्य। सातये। हवामहे। जेतारम्। अपराजितम्।अ।पराजितम्। सः। नः। स्वर्षत्।अति। द्विषः। सः। नः। स्वर्षत्।अति द्विषः८।

पदार्थ : (इन्द्रम्) शूरं परमैश्वर्यशालिनं परमेश्वरम्, वयं योगाभ्यासिनः (धनस्य) विवेकख्यातिरूपस्य ऐश्वर्यस्य (सातये) प्राप्तये (हवामहे) आह्वयामः। कीदृशं परमेश्वरम् ? (जेतारम्) शत्रूणां विघ्नानां च विजेतारम्, किञ्च (अपराजितम्) कोटिसंख्यकैरपि शत्रुभिर्विघ्नैश्च अपराभूतम्। (सः) विजेता परमेश्वरः (नः) अस्मान् (द्विषः) अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशेभ्यः पञ्चक्लेशेभ्यः (अति स्वर्षत्) अतिपारयेत्, (सः) अपराजितः परमेश्वरः (नः) अस्मान् (द्विषः) व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शना- लब्धभूमिकत्वानव स्थितत्वात्मकचित्तविक्षेपरूपेभ्यो योगमार्गान्तरायेभ्यः (अति स्वर्षत्) अतिपारयेत् ॥७॥

भावार्थ : परमेश्वरस्यैव कृपया योगाभ्यासिनो जना योगविघ्नान् विजित्य विवेकख्यात्या कैवल्यमधिगन्तुमर्हन्ति ॥७॥

टिप्पणी:अथ संन्यासाश्रमं प्रविविक्षुराह।