Samveda/656
ऋधक्सोम स्वस्तये संजग्मानो दिवा कवे। पवस्व सूर्यो दृशे(यि)।।॥६५६
Veda : Samveda | Mantra No : 656
In English:
Seer : kashyapo maariichaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : RRidhaksoma svastaye sa.mjagmaano divaa kave . pavasva suuryo dRRishe.656
Component Words : RRidhak . soma . svastaye . su . astaye . sa.mjagmaanaH . sam . jagmaanaH . divaa . kave . pavasva . suuryaH . dRRishe .
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : कश्यपो मारीचः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अगले मन्त्र में जीवात्मा और चन्द्रमा का विषय वर्णित है।
पदपाठ : ऋधक् । सोम । स्वस्तये । सु । अस्तये । संजग्मानः । सम् । जग्मानः । दिवा । कवे । पवस्व । सूर्यः । दृशे ॥
पदार्थ : प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। हे (कवे) बुद्धिमान्, दूरदर्शी (सोम) चन्द्रमा के समान उन्नतिशील जीवात्मन् ! तू (दिवा) परमात्मा की ज्योति से (संजग्मानः) संयुक्त होता हुआ (स्वस्तये) उत्कृष्ट जीवन के लिए (ऋधक्) उन्नति प्राप्त कर। (सूर्यः) सूर्य के समान प्रकाशमान होकर (दृशे) मुक्ति का मार्ग देखने के लिए (पवस्व) प्रयत्न कर ॥ द्वितीय—चन्द्रमा के पक्ष में। हे (कवे) पृथिवी की परिक्रमा करनेवाले (सोम) चन्द्रमा ! तू (दिवा) सूर्य के प्रकाश से (संजग्मानः) संयुक्त होता हुआ (स्वस्तये) हमारे सुख के लिए (ऋधक्) एक-एक कला से प्रतिदिन बढ़ता चल। पूर्णिमा को (सूर्यः) सूर्य के समान सम्पूर्ण प्रभामण्डलवाला होकर (दृशे) हमारे देखने के लिए (पवस्व) भूमण्डल पर अपनी चांदनी को फैला ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘सूर्यः’ अर्थात् ‘सूर्य के सदृश’ में लुप्तोपमा है। चन्द्रमा के पक्ष में जड़ वस्तु में चेतनवत् व्यवहार आलङ्कारिक है ॥३॥
भावार्थ : जैसे सूर्य से चन्द्रमा प्रकाशित होता है, वैसे ही परमात्मारूप सूर्य से हम प्रकाशित होते हैं ॥३॥
In Sanskrit:
ऋषि : कश्यपो मारीचः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : अथ जीवात्मचन्द्रयोर्विषयमाह।
पदपाठ : ऋधक् । सोम । स्वस्तये । सु । अस्तये । संजग्मानः । सम् । जग्मानः । दिवा । कवे । पवस्व । सूर्यः । दृशे ॥
पदार्थ : प्रथमः—जीवात्मपरः। हे (कवे) मेधाविन् क्रान्तदर्शिन् (सोम) चन्द्रवद् वृद्धिशील जीवात्मन् ! त्वम् (दिवा) परमात्मज्योतिषा (संजग्मानः) संगच्छमानः सन् (स्वस्तये) उत्कृष्टजीवनाय। [अस्तिरभिपूजितः स्वस्तिरिति निरुक्तम्। ३।२१।१२।] (ऋधक्) ऋध्नुवन्, वर्धमानः भव। [ऋधगिति पृथग्भावस्यानुप्रवचनं भवति, अथापि ऋध्नोत्यर्थे दृश्यते। निरु० ४।२५] (सूर्यः) सूर्य इव प्रकाशमानः सन् (दृशे) मुक्तिमार्गं द्रष्टुम् (पवस्व) प्रयतस्व। [पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४] ॥ द्वितीयः—चन्द्रपरः। हे (कवे) पृथिवीं परितो गन्तः। [कवते गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (सोम) चन्द्र ! त्वम् (दिवा) सूर्यप्रकाशेन (संजग्मानः) संगच्छमानः (स्वस्तये) अस्मत्कल्याणाय (ऋधक्) एकैकया कलया प्रत्यहं वर्धमानो भव। तथा च पूर्णिमायाम् (सूर्यः) सूर्य इव सम्पूर्णप्रभामण्डलः सन् (दृशे) अस्माकं दर्शनाय (पवस्व) भूमण्डले स्वचन्द्रिकां प्रक्षारय ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। सूर्यः इति लुप्तोपमम्। चन्द्रपक्षे जडे चेतनवद् व्यवहार आलङ्कारिकः ॥३॥
भावार्थ : यथा सूर्याच्चन्द्रः प्रकाशते तथैव परमात्मसूर्याद् वयं प्रकाशिता भवामः ॥३॥
टिप्पणी:१. ऋ० ९।६४।३० ‘दि॒वः क॒विः’ इति भेदः।