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Samveda/673

स न इन्द्राय यज्यवे वरुणाय मरुद्भ्यः। वरिवोवित्परि स्रव॥६७३

Veda : Samveda | Mantra No : 673

In English:

Seer : ahamiiyuraa.mgirasaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : sa na indraaya yajyave varuNaaya marudbhyaH . varivovitpari srava.673

Component Words :
saH . naH . indraaya . yajyave . varuuNaaya . marudbhayaH . varivovit . varivaH . vit . pari . srava .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : अहमीयुरांगिरसः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : द्वितीय ऋचा की पूर्वार्चिक में ५९२ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में व्याख्या हुई थी। यहाँ गुरु-शिष्य का विषय वर्णित करते हैं।

पदपाठ : सः । नः । इन्द्राय । यज्यवे । वरूणाय । मरुद्भयः । वरिवोवित् । वरिवः । वित् । परि । स्रव ॥

पदार्थ : हे ज्ञानरस के भण्डार गुरु ! (सः) वह अतिशय गुणी आप (नः) हमारे (यज्यवे) विद्याध्ययन-यज्ञ के यजमानभूत (इन्द्राय) आत्मा के लिए, (वरुणाय) श्रेष्ठ मन के लिए और (मरुद्भ्यः) प्राणों के लिए (वरिवोवित्) उन-उनके अपने-अपने ऐश्वर्यों को प्राप्त करानेवाले होकर (परिस्रव) शिष्यों के मध्य विचरण कीजिए ॥२॥

भावार्थ : गुरुओं को उचित है कि वे विद्या पढ़ाने के अतिरिक्त शिष्य के आत्मा, मन और प्राणों का भी विकास करें ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : अहमीयुरांगिरसः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : द्वितीया ऋक् पूर्वार्चिके ५९२ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयो वर्ण्यते।

पदपाठ : सः । नः । इन्द्राय । यज्यवे । वरूणाय । मरुद्भयः । वरिवोवित् । वरिवः । वित् । परि । स्रव ॥

पदार्थ : हे ज्ञानरसागार गुरो ! (सः) असौ अतिशयगुणवाँस्त्वम् (नः) अस्माकम् (यज्यवे) विद्यायज्ञस्य यजमानभूताय (इन्द्राय) आत्मने, (वरुणाय) श्रेष्ठाय मनसे, (मरुद्भ्यः) प्राणेभ्यश्च (वरिवोवित्) तत्तदैश्वर्याणां लम्भकः सन् (परिस्रव) शिष्याणां मध्ये विचर ॥२॥२

भावार्थ : गुरूणामुचितमस्ति यत् ते विद्याध्यापनातिरिक्तं शिष्यस्यात्ममनःप्राणानामपि विकासं कुर्युः ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।६१।१२ य० २६।१७ साम० ५९२।२. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्। तत्र तन्मते महीयव ऋषिः, इन्द्रो देवता।