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Samveda/692

पवस्व मधुमत्तम इन्द्राय सोम क्रतुवित्तमो मदः। महि द्युक्षतमो मदः॥६९२

Veda : Samveda | Mantra No : 692

In English:

Seer : gauriviitiH shaaktyaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : kaakubhaH pragaathaH (viShamaa kakup, samaa satobRRihatii) | Tone : RRIShabhaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : pavasva madhumattama indraaya soma kratuvittamo madaH . mahi dyukShatamo madaH.692

Component Words :
pavasva madhumattamaH indraaya soma kratuvittamaH kratu vittamaH madaH mahi dyukShatamaH dyu . kShatamaH . madaH .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : गौरिवीतिः शाक्त्यः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती) | स्वर : ऋषभः

विषय : प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ५७८ क्रमाङ्क पर परमात्मा से प्राप्त होनेवाले आनन्दरस के विषय में व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ आचार्य से प्राप्त होनेवाले ज्ञानरस का वर्णन है।

पदपाठ : पवस्व मधुमत्तमः इन्द्राय सोम क्रतुवित्तमः क्रतु वित्तमः मदः महि द्युक्षतमः द्यु । क्षतमः । मदः ॥

पदार्थ : हे (सोम) ब्रह्मज्ञान-रस ! (मधुमत्तमः) सबसे अधिक मधुर तू (पवस्व) हमें पवित्र कर। तेरा (मदः) आनन्द (इन्द्राय) मेरे अन्तरात्मा के लिए (क्रतुवित्तमः) प्रज्ञा तथा कर्म को अत्यधिक प्राप्त करानेवाला होता है। तेरा (मदः) आनन्द (महि) अत्यधिक (द्युक्षतमः) तेज को बसानेवाला होता है ॥१॥

भावार्थ : आचार्य से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके ब्रह्म के गुण-कर्म-स्वभाव का ध्यान कर-करके अपने जीवन को पवित्र करना चाहिए ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : गौरिवीतिः शाक्त्यः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती) | स्वर : ऋषभः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५७८ क्रमाङ्के परमात्मन आनन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र आचार्यात् प्राप्तव्यस्य ज्ञानरसस्य विषयमाह।

पदपाठ : पवस्व मधुमत्तमः इन्द्राय सोम क्रतुवित्तमः क्रतु वित्तमः मदः महि द्युक्षतमः द्यु । क्षतमः । मदः ॥

पदार्थ : हे (सोम) ब्रह्मज्ञानरस ! (मधुमत्तमः) अतिशयेन मधुरः त्वम् (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। तव (मदः) आनन्दः (इन्द्राय) अन्तरात्मने (क्रतुवित्तमः) अतिशयेन प्रज्ञायाः कर्मणश्च लम्भकः भवतीति शेषः। त्वदीयः (मदः) आनन्दः (महि) महत् (द्युक्षतमः) दीप्तेः निवासयितृतमः, जायते इति शेषः ॥१॥

भावार्थ : आचार्याद् ब्रह्मज्ञानं प्राप्य ब्रह्मणो गुणकर्मस्वभावान् ध्यायं-ध्यायं स्वजीवनं पावनीयम् ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।१०८।१, साम० ५७८।