Samveda/728
आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं चित्रं ग्राभ सं गृभाय। महाहस्ती दक्षिणेन॥७२८
Veda : Samveda | Mantra No : 728
In English:
Seer : kusiidii kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : aa tuu na indra kShumanta.m chitra.m graabha.m sa.m gRRibhaaya . mahaahastii dakShiNena.728
Component Words : aa . tu . naH . indra . kShumantam . chitram . graabham . sam . gRRibhaaya . mahaahastii . mahaa . hastii . dakShiNena .
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : कुसीदी काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १६७ पर परमेश्वर के विषय में व्याख्यात की जा चुकी है। यहाँ आचार्य को सम्बोधन किया जा रहा है।
पदपाठ : आ । तु । नः । इन्द्र । क्षुमन्तम् । चित्रम् । ग्राभम् । सम् । गृभाय । महाहस्ती । महा । हस्ती । दक्षिणेन ॥
पदार्थ : हे (इन्द्र) विद्या के ऐश्वर्य से युक्त गुरुवर ! आप (तु) शीघ्र ही (दक्षिणेन) उदारता से (नः) हमारे अन्दर (क्षुमन्तम्) शब्दशास्त्र के ज्ञान से युक्त, (चित्रम्) अद्भुत, दिव्य (ग्राभम्) ब्रह्मविद्यारूप धन को (सं गृभाय) संगृहीत कीजिए, जैसे (महाहस्ती) बड़े हाथोंवाला कोई पुरुष (दक्षिणेन) दाहिने हाथ से (ग्राभम्) ग्राह्य धन को संगृहीत करता है ॥१॥यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ : शिष्यों को चाहिए कि गुरुओं के पास से सब लौकिक विद्याओं तथा ब्रह्मविद्याओं को यत्न से संचित करें और गुरुओं को चाहिए कि वे प्रेमपूर्वक यत्न से उन्हें दें ॥१॥
In Sanskrit:
ऋषि : कुसीदी काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १६७ क्रमाङ्के परमेश्वरविषये राजविषये च व्याख्याता। अत्राचार्यः सम्बोध्यते।
पदपाठ : आ । तु । नः । इन्द्र । क्षुमन्तम् । चित्रम् । ग्राभम् । सम् । गृभाय । महाहस्ती । महा । हस्ती । दक्षिणेन ॥
पदार्थ : हे (इन्द्र) विद्यैश्वर्यसम्पन्न गुरुवर ! त्वम् (तु) सद्यः एव (दक्षिणेन) दाक्षिण्येन (नः) अस्मासु (क्षुमन्तम्) शब्दशास्त्रवन्तम्। [टुक्षु शब्दे इत्यनेन क्षु शब्दनिष्पत्तिः।] (चित्रम्) अद्भुतम्, दिव्यम् (ग्राभम्) ब्रह्मविद्यारूपं धनम् (सं गृभाय) संगृहाण। कथमिव ? यथा (महाहस्ती) महाहस्तः कश्चित् पुरुषः (दक्षिणेन) वामेतरेण करेण (ग्राभम्) ग्रहीतुं योग्यं धनम् संगृह्णाति तद्वत् ॥१॥अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥१॥
भावार्थ : गुरूणां सकाशाच्छिष्यैः समस्ता लौकिकविद्या ब्रह्मविद्याश्च यत्नेन संचेतव्याः, गुरुभिश्च प्रेम्णा यत्नेन दातव्याः ॥१॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।८१।१, साम० १६७।