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Samveda/736

तं ते यवं यथा गोभिः स्वादुमकर्म श्रीणन्तः। इन्द्र त्वास्मिंत्सधमादे(थौ)।।॥७३६

Veda : Samveda | Mantra No : 736

In English:

Seer : vasiShTho maitraavaruNiH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : ta.m te yava.m yathaa gobhiH svaadumakarma shriiNantaH . indra tvaasmi.mtsadhamaade.736

Component Words :
tam .te .yavam .yathaa .gobhiH .svaadum .akarma .shriiNantaH .indra .tvaa .asmin .sadhamaade .sadha .maade.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।

पदपाठ : तम् ।ते ।यवम् ।यथा ।गोभिः ।स्वादुम् ।अकर्म ।श्रीणन्तः ।इन्द्र ।त्वा ।अस्मिन् ।सधमादे ।सध ।मादे॥

पदार्थ : हे शिष्य ! (तम्) उस ब्रह्मविद्यारूप सोमरस को (गोभिः) मधुर वाणियों से (श्रीणन्तः) परिपक्व करते हुए हमने (स्वादुम्) स्वादु (अकर्म) कर लिया है, (यथा) जैसे (यवम्) जौ के रस को (गोभिः) गाय के दूध से मधुर कर लेते हैं। हे (इन्द्र) प्रिय शिष्य ! (अस्मिन्) इस (सधमादे) जिसमें साथ मिलकर ब्रह्मज्ञान का पान करते हैं, ऐसे विद्या-यज्ञ में (त्वा) तुझे, हम ब्रह्मज्ञान का रस पीने के लिए बुला रहे हैं ॥३॥इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ : गुरुओं को चाहिए कि वे शिष्यों को लौकिक ज्ञान तथा ब्रह्मज्ञान नीरस रूप में नहीं, किन्तु सरस रूप में दें, जिससे उनकी उसमें रुचि हो ॥३॥इस खण्ड में गुरु-शिष्य का विषय, परमेश्वर-जीवात्मा का विषय तथा ब्रह्मज्ञान का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्वखण्ड के साथ सङ्गति है ॥द्वितीय अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥


In Sanskrit:

ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

पदपाठ : तम् ।ते ।यवम् ।यथा ।गोभिः ।स्वादुम् ।अकर्म ।श्रीणन्तः ।इन्द्र ।त्वा ।अस्मिन् ।सधमादे ।सध ।मादे॥

पदार्थ : हे शिष्य ! (तम्) ब्रह्मविज्ञानरूपं सोमरसम् (गोभिः) मधुराभिः वाग्भिः (श्रीणन्तः) परिपचन्तः वयम्। [श्रीञ् पाके, क्र्यादिः।] (स्वादुम्) मधुरम् (अकर्म२) अकार्ष्म। कथमिव ? (यथा) येन प्रकारेण (यवम्) यवरसम् (गोभिः) गव्यैः क्षीरैः स्वादुं कुर्मः तद्वत्। हे (इन्द्र) प्रिय शिष्य ! (अस्मिन्) एतस्मिन् (सधमादे) सह माद्यन्ति ब्रह्मज्ञानदानेन शिष्या अत्र इति सधमादः विद्यायज्ञः तत्र (त्वा) त्वाम् ब्रह्मज्ञानरसं पातुम् आह्वयाम इति शेषः ॥३॥अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थ : गुरुभिः शिष्येभ्यो लौकिकं ज्ञानं ब्रह्मज्ञानं च नीरसरूपेण न किन्तु सरसरूपेण प्रदातव्यं, येन तत्र तेषां रुचिर्भवेत् ॥३॥अस्मिन् खण्डे गुरुशिष्यविषयस्य, परमेश्वरजीवात्मविषयस्य, ब्रह्मज्ञानविषयस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।२।३।२. करोतेर्लुङि ‘मन्त्रे घस०’ पा० २।४।८० इति च्लेर्लुक्—इति सा०।