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Samveda/749

एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमा हुवे। प्रियं चेतिष्ठमरति स्वध्वरं विश्वस्य दूतममृतम्॥७४९

Veda : Samveda | Mantra No : 749

In English:

Seer : vasiShTho maitraavaruNiH | Devta : agniH | Metre : pragaathaH(viShamaa bRRihatii samaa satobRRihatii) | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : enaa vo agni.m namasorjo napaatamaa huve . priya.m chetiShThamarati.m svadhvara.m vishvasya duutamamRRitam.749

Component Words :
enaa .vaH .agnim .namasaa .uurjaH .napaat .aa .huve .priyam .chetiShTham .aratim .svadhvaram .su .adhvaram .vishvasya .duutam .amRRitam.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : अग्निः | छन्द : प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती) | स्वर : मध्यमः

विषय : प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ४५ पर परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ अग्निहोत्र का विषय वर्णित करते हैं।

पदपाठ : एना ।वः ।अग्निम् ।नमसा ।ऊर्जः ।नपात् ।आ ।हुवे ।प्रियम् ।चेतिष्ठम् ।अरतिम् ।स्वध्वरम् ।सु ।अध्वरम् ।विश्वस्य ।दूतम् ।अमृतम्॥

पदार्थ : हे साथियो ! मैं (ऊर्जः नपातम्) बल और प्राणशक्ति को बढ़ानेवाले, (प्रियम्) प्रिय, (चेतिष्ठम्) अतिशय जागरूक करनेवाले, (अरतिम्) गतिशील, (स्वध्वरम्) उत्कृष्ट यज्ञ जिससे चलता है ऐसे, (विश्वस्य दूतम्) सब यजमानों के लिए दूत का कार्य करनेवाले, अर्थात् दूत जैसे संदेश लाने और ले जाने में दोनों पक्षों के बीच में माध्यम बनता है, वैसे ही होमे हुए पदार्थ को सूक्ष्म करके उसके सुगन्ध को सब जगह फैलाने में माध्यम बननेवाले, (अमृतम्) सब पदार्थों में अव्यक्त रूप से स्थित होने के कारण अमर (अग्निम्) यज्ञाग्नि में (वः)तुम्हारे व अपने हित के लिए (एना) इस प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले (नमसा) श्रद्धाभाव से वा अन्नादि की हवि से (आहुवे) आहुति देता हूँ ॥१॥

भावार्थ : अग्निहोत्र से जैसे जल, वायु आदि की शुद्धि होती है, वैसे ही अन्तःकरण की भी शुद्धि होती है तथा शारीरिक बल, आत्मबल, प्राणशक्ति, जागरूकता और त्यागभावना की उपलब्धि होती है ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : अग्निः | छन्द : प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती) | स्वर : मध्यमः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४५ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्राग्निहोत्रविषय उच्यते।

पदपाठ : एना ।वः ।अग्निम् ।नमसा ।ऊर्जः ।नपात् ।आ ।हुवे ।प्रियम् ।चेतिष्ठम् ।अरतिम् ।स्वध्वरम् ।सु ।अध्वरम् ।विश्वस्य ।दूतम् ।अमृतम्॥

पदार्थ : हे सखायः ! अहम् (ऊर्जोनपातम्) बलस्य प्राणशक्तेश्च न पातयितारम्, वर्द्धकमिति यावत्, (प्रियम्) प्रेमार्हम्, (चेतिष्ठम्) अतिशयेन चेतयितारम्, (अरतिम्) गतिशीलम्, (स्वध्वरम्) शोभनः अध्वरः यज्ञः येन तम् (विश्वस्य दूतम्) सर्वस्यापि यजमानजनस्य दौत्यमिवाचरन्तम्, यथा दूतो वार्ताहरणे उभयोः पक्षयोः माध्यमं जायते तथैव योऽग्निर्हुतं द्रव्यं सूक्ष्मीकृत्य तत्सुगन्धस्य सर्वत्र प्रसारणे माध्यमं भवतीति कृत्वा तस्य दूतत्वमुक्तम्, (अमृतम्) सर्वेषु पदार्थेष्वव्यक्ततयाऽवस्थानाद् अमरणधर्माणम् (अग्निम्) यज्ञाग्निम् (वः) युष्मभ्यम्, अस्मभ्यं चेत्यपि द्योत्यते, युष्मदस्मद्धितायेति भावः (एना) एनेन प्रत्यक्षं दृश्यमानेन (नमसा) श्रद्धाभावेन, अन्नादिहविषा वा। [नमः इत्यन्ननामसु पठितम्।] (आहुवे) आजुहोमि ! [हु दानादनयोः, जुहोत्यादिः,छान्दसः शपः श्लोरभावः] ॥१॥१

भावार्थ : अग्निहोत्रेण यथा जलवाय्वादिकस्य शुद्धिर्जायते तथैवान्तःकरणस्यापि शुद्धिर्भवति, देहात्मबलं प्राणशक्तिजागरूकता त्यागभावना चापि प्राप्यते ॥१॥

टिप्पणी:२. ऋ० ७।१६।१, य० १५।३२, साम० ४५।१. मन्त्र एष दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये राजप्रजाविषये यजुर्भाष्ये च विद्युद्विद्याविषये व्याख्यातः