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Samveda/811

अभि प्र वः सुराधसमिन्द्रमर्च यथा विदे। यो जरितृभ्यो मघवा पुरूवसुः सहस्रेणेव शिक्षति॥८११

Veda : Samveda | Mantra No : 811

In English:

Seer : baalakhilyaaH, praskaNvaH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : pragaathaH(viShamaa bRRihatii samaa satobRRihatii) | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : abhi pra vaH suraadhasamindramarcha yathaa vide . yo jaritRRibhyo maghavaa puruuvasuH sahasreNeva shikShati.811

Component Words :
abhi .pra. vaH .suraadhasam .su .raadhasam .indram .archa .yathaa .vide. yaH .jaritRRibhya .maghavaa .puruvasuH .puru .vasuH .sahasreNa .iva.shikShati.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : बालखिल्याः, प्रस्कण्वः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती) | स्वर : मध्यमः

विषय : प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २३५ क्रमाङ्क पर परमेश्वर की अर्चना के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ आचार्य का विषय वर्णित करते हैं।

पदपाठ : अभि ।प्र। वः ।सुराधसम् ।सु ।राधसम् ।इन्द्रम् ।अर्च ।यथा ।विदे। यः ।जरितृभ्य ।मघवा ।पुरुवसुः ।पुरु ।वसुः ।सहस्रेण ।इव।शिक्षति॥

पदार्थ : हे छात्रो ! (वः) तुम (सुराधसम्) उत्तम सिद्धि देनेवाले (इन्द्रम्) तपस्यारूप ऐश्वर्य से युक्त आचार्य की (अर्च) अर्चना करो, अर्थात् समित्पाणि होकर उसकी शरण में जाकर उसकी सेवा करो, (यथा विदे) जिससे वह तुम्हारी विद्याग्रहण की योग्यता को जाने। कैसे आचार्य की? (यः) जो (पुरूवसुः) बहुत विद्यारूप धनवाला, (मघवा) विद्या का दान करनेवाला आचार्य (जरितृभ्यः) स्तोता छात्रों को (सहस्रेण इव) मानों हजार मुखों से (शिक्षति) शिक्षा देता है ॥१॥इस मन्त्र में ‘मानो हजार मुखों से’ में उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥१॥

भावार्थ : आचार्य के पास से ही लोकविद्या और ब्रह्मविद्या प्राप्त होती है। इस रूप में उसका महत्त्व जानकर कृतज्ञतापूर्वक उसका सबको सम्मान करना चाहिए ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : बालखिल्याः, प्रस्कण्वः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती) | स्वर : मध्यमः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २३५ क्रमाङ्के परमेश्वरार्चनविषये व्याख्याता। अत्राचार्यविषयो वर्ण्यते।

पदपाठ : अभि ।प्र। वः ।सुराधसम् ।सु ।राधसम् ।इन्द्रम् ।अर्च ।यथा ।विदे। यः ।जरितृभ्य ।मघवा ।पुरुवसुः ।पुरु ।वसुः ।सहस्रेण ।इव।शिक्षति॥

पदार्थ : हे छात्राः ! (वः) यूयम् (सुराधसम्) सुसिद्धिप्रदायकम् (इन्द्रम्) तपोरूपैश्वर्यवन्तम् आचार्यम् (अर्च) अर्चत, समित्पाणयो भूत्वा तच्छरणमुपगम्य तं परिचरत। [अत्र पुरुषव्यत्ययः।] (यथा विदे) येन स युष्माकं विद्याग्रहणयोग्यतां जानीयात्। कीदृशम् आचार्यम् ? (यः पुरूवसुः) बहुविद्याधनः (मघवा) विद्यादानवान्२ आचार्यः (जरितृभ्यः) स्तोतृभ्यः छात्रेभ्यः (सहस्रेण इव) मुखसहस्रेण इव (शिक्षति) शिक्षयति। [णिज्गर्भोऽयं प्रयोगः] ॥१॥सहस्रेण इव इत्यत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः ॥१॥

भावार्थ : आचार्यसकाशादेव लोकविद्या ब्रह्मविद्या च प्राप्यत इति तन्महत्त्वं विज्ञाय कृतज्ञतया स सर्वैः संमाननीयः ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।४९।१, साम० २३५, अथ० २०।५१।१।२. मघं दानं मंहतेः, दानवान् नित्यदानः—इति भ०।