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Samveda/831

विघ्नन्तो दुरिता पुरु सुगा तोकाय वाजिनः। त्मना कृण्वन्तो अर्वतः॥८३१

Veda : Samveda | Mantra No : 831

In English:

Seer : jamadagnirbhaargavaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : vighnanto duritaa puru sugaa tokaaya vaajinaH . tmanaa kRRiNvanto arvataH.831

Component Words :
vighantaH .vi .ghnantaH .duritaa. duH .itaa .puru .sugaa .su .gaa .tokaaya .vaajinaH .tmanaa .kRRiNvantaH .arvataH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : जमदग्निर्भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।

पदपाठ : विघन्तः ।वि ।घ्नन्तः ।दुरिता। दुः ।इता ।पुरु ।सुगा ।सु ।गा ।तोकाय ।वाजिनः ।त्मना ।कृण्वन्तः ।अर्वतः॥

पदार्थ : (वाजिनः) आत्मबल से युक्त ये सोम अर्थात् सौम्यगुणी उपासक (पुरु) बहुत से (दुरिता) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (विघ्नन्तः) विनष्ट करते हुए, (तोकाय) सन्तान के लिए (सुगा) आसानी से प्राप्त होने योग्य भद्रों को रचते हुए और (त्मना) स्वयं को (अर्वतः) घोड़ों के समान प्रगतिशील (कृण्वन्तः) करते हुए (सुष्टुतिम्) उत्तम प्रशस्ति को (अभ्यर्षन्ति) प्राप्त करते हैं। [अभ्यर्षन्ति सुष्टुतिम्—यह वाक्य अगले मन्त्र से यहाँ लाया गया है] ॥२॥

भावार्थ : हृदय से की गयी उपासना का यह अनिवार्य फल होता है कि उपासक के दुरित नष्ट हों, भद्र की प्राप्ति हो और वह आगे बढ़े ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : जमदग्निर्भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।

पदपाठ : विघन्तः ।वि ।घ्नन्तः ।दुरिता। दुः ।इता ।पुरु ।सुगा ।सु ।गा ।तोकाय ।वाजिनः ।त्मना ।कृण्वन्तः ।अर्वतः॥

पदार्थ : (वाजिनः) आत्मबलयुक्ताः एते सोमासः सौम्यगुणाः उपासकाः (पुरु) पुरूणि (दुरिता) दुरितानि, (दुर्गुणान्) दुर्व्यसनानि दुःखानि च (विघ्नन्तः) विनाशयन्तः, (तोकाय) अपत्याय (सुगा) सुगानि सुप्राप्याणि भद्राणि सृजन्तः, (त्मना) आत्मनश्च। [मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः अ० ६।४।१४१ इत्याकारलोपः।] (अर्वतः) अश्वान्, अश्वानिव प्रगतिशीलान् (कृण्वन्तः) कुर्वन्तः (सुष्टुतिम्) शोभनां स्तुतिम् (अभ्यर्षन्ति) प्राप्नुवन्ति। [‘अभ्यर्षन्ति सुष्टुतिम्’ इत्युत्तरमन्त्रादाकृष्यते] ॥२॥

भावार्थ : हार्दिक्या उपासनाया इदमनिवार्यं फलं यदुपासकस्य दुरितनाशो भद्रप्राप्तिरग्रेसरत्वं चेति ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।६२।२, ‘तना कृ॒ण्वन्तो॒ अर्व॑ते’ इति तृतीयः पादः।