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Samveda/974

क्रीडुर्मखो न महयुः पवित्र सोम गच्छसि। दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम् (को)।। [धा. । उ । स्व. ।]॥९७४

Veda : Samveda | Mantra No : 974

In English:

Seer : asitaH kaashyapo devalo vaa | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : kriiDurmakho na ma.m hayuH pavitra.m soma gachChasi . dadhatstotre suviiryam.974

Component Words :
kriiDuuH .makhaH. na .mahayuH .pavitram .soma .gachChasi .dadhat. stotre .suviiryam .su .viiryam.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : असितः काश्यपो देवलो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में यह कहते हैं कि क्या करता हुआ परमात्मा कहाँ जाता है।

पदपाठ : क्रीडूः ।मखः। न ।महयुः ।पवित्रम् ।सोम ।गच्छसि ।दधत्। स्तोत्रे ।सुवीर्यम् ।सु ।वीर्यम्॥

पदार्थ : हे (सोम) जगत् के सर्जन करने हारे परमात्मन् ! (क्रीडुः) खेल-खेल में विश्व को चलानेवाले तथा (मखः न) यज्ञ के समान (मंहयुः) दूसरों को लाभ पहुँचाने की इच्छावाले आप (स्तोत्रे) स्तुतिपरायण मनुष्य के लिए (सुवीर्यम्) सुवीर्य से युक्त आत्म-बल (दधत्) प्रदान करते हुए, उसके (पवित्रम्) निर्मल अन्तःकरण में (गच्छसि) व्याप्त होते हो ॥७॥यहाँ उपमालङ्कार है ॥७॥

भावार्थ : जैसे यज्ञ सबके उपकार के लिए होता है, वैसे ही परमेश्वर भी दूसरों के उपकार में लगा हुआ स्तोता के अन्तरात्मा में बल, उत्साह, पुरुषार्थ और कर्मयोग की प्रेरणा देता है ॥७॥


In Sanskrit:

ऋषि : असितः काश्यपो देवलो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ किं कुर्वन् परमात्मा कुत्र गच्छतीत्याह।

पदपाठ : क्रीडूः ।मखः। न ।महयुः ।पवित्रम् ।सोम ।गच्छसि ।दधत्। स्तोत्रे ।सुवीर्यम् ।सु ।वीर्यम्॥

पदार्थ : हे (सोम) जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (क्रीडुः) जगत्सञ्चालनक्रीडाकरः, किञ्च (मखः न) यज्ञः इव (मंहयुः) दानेच्छुकः त्वम्। [मंहते दानकर्मा निघं० ३।२०। मंहं दानं परेषां कामयते इति मंहयुः। परेच्छायां क्यचि उः प्रत्ययः।] (स्तोत्रे) स्तुतिपरायणाय जनाय (सुवीर्यम्) सुवीर्योपेतम् आत्मबलम् (दधत्) प्रयच्छन्, तस्य (पवित्रम्) निर्मलम् अन्तःकरणम् (गच्छसि) व्याप्नोषि ॥७॥अत्रोपमालङ्कारः ॥७॥

भावार्थ : यथा यज्ञः सर्वेषामुपकाराय भवति तथा परमेश्वरोऽपि परेषामुपकारे संलग्नः स्तोतुरन्तरात्मनि बलमुत्साहं पुरुषार्थं कर्मयोगं च प्रेरयति ॥७॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।२०।७।