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Samveda/992

या वासन्ति पुरुस्पृहो नियुतो दाशुषे नरा। इन्द्राग्नी ताभिरा गतम्॥९९२

Veda : Samveda | Mantra No : 992

In English:

Seer : bharadvaajo baarhaspatyaH | Devta : indraagnii | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : yaa vaa.m santi puruspRRiho niyuto daashuShe naraa . indraagnii taabhiraa gatam.992

Component Words :
yaaH .vaam .santi .puruspRRihaH. puru. spRRihaH. niyutaH.ni .yutaH .daashuShe .naraa .indraagnii .indra .agniiiti .taabhiH .aa .gatam.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : भरद्वाजो बार्हस्पत्यः | देवता : इन्द्राग्नी | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय को कहते हैं।

पदपाठ : याः ।वाम् ।सन्ति ।पुरुस्पृहः। पुरु। स्पृहः। नियुतः।नि ।युतः ।दाशुषे ।नरा ।इन्द्राग्नी ।इन्द्र ।अग्नीइति ।ताभिः ।आ ।गतम्॥

पदार्थ : हे (नरा) नेता (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन वा राजा एवं सेनापति ! (दाशुषे) त्यागशील, परोपकारी जन के लिए (याः) जो (वाम्) तुम्हारी (नियुतः) लाख संख्यावाली (पुरुस्पृहः) बहुत महत्वाकांक्षावाली उदात्त कामनाएँ हैं, (ताभिः) उनके साथ तुम (आ गतम्) आओ ॥२॥

भावार्थ : शरीर में मनुष्य का अन्तरात्मा और मन तथा राष्ट्र में राजा और सेनाध्यक्ष दूसरों का हित करनेवाले मनुष्य का ही उपकार करते हैं, स्वार्थ की कीचड़ से लिप्त मनुष्य का नहीं ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : भरद्वाजो बार्हस्पत्यः | देवता : इन्द्राग्नी | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

पदपाठ : याः ।वाम् ।सन्ति ।पुरुस्पृहः। पुरु। स्पृहः। नियुतः।नि ।युतः ।दाशुषे ।नरा ।इन्द्राग्नी ।इन्द्र ।अग्नीइति ।ताभिः ।आ ।गतम्॥

पदार्थ : हे (नरा) नरौ नेतारौ (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी नृपतिसेनापती वा ! (दाशुषे) दत्तवते त्यागशीलाय परोपकारिणे जनाय (याः वाम्) युवयोः (नियुतः) लक्षसंख्यकाः (पुरुस्पृहः) बहुमहत्त्वाकाङ्क्षिण्यः उदात्ताः कामनाः सन्ति (ताभिः) उदात्ताभिः कामनाभिः युवाम् (आ गतम्२) आगच्छतम् ॥२॥३

भावार्थ : देहे मनुष्यस्यान्तरात्मा मनश्च राष्ट्रे राजा सेनाध्यक्षश्च परहितकारिणमेव जनमुपकुर्वन्ति न स्वार्थपङ्कलिप्तम् ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ६।६०।८।२. अत्र गम्लृ गतौ इत्यस्माद् ‘बहुलं छन्दसि’ इति शपो लुकि सति शित्वाभावाच्छस्याभावो ‘अनुदात्तोपदेश’ इत्यादिना मलोपश्च इति य० ७।८ भाष्ये द०।३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिममध्यापको-पदेशकपक्षे व्याख्यातवान्।