Samveda/1008
असाव्यशुर्मदायाप्सु दक्षो गिरिष्ठाः। श्येनो न योनिमासदत्॥१००८
Veda : Samveda | Mantra No : 1008
In English:
Seer : jamadagnirbhaargavaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : asaavya.m shurmadaayaapsu dakSho giriShThaaH . shyeno na yonimaasadat.1008
Component Words : asaavi .ashuH .madaaya .apsu .dakShaH .giriShThaaH .giri .sthaaH .shyena .na .yonim .aa .asadat.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : जमदग्निर्भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ४७३ क्रमाङ्क पर आनन्दरस के विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ सोम ओषधि के रस का तथा ज्ञानरस का विषय वर्णित किया जाता है।
पदपाठ : असावि ।अशुः ।मदाय ।अप्सु ।दक्षः ।गिरिष्ठाः ।गिरि ।स्थाः ।श्येन ।न ।योनिम् ।आ ।असदत्॥
पदार्थ : प्रथम—सोमौषधि के रस के विषय में। (गिरिष्ठाः) पर्वतों पर उत्पन्न, (दक्षः) बलदायक (अंशुः) सोम ओषधि का रस (मदाय) पीने पर उत्साहवर्धन के लिए (अप्सु) जलों में (असावि) निचोड़ा गया है। (श्येनः न योनिम्) बाज पक्षी जैसे अपने आवास वृक्ष पर बैठता है, वैसे ही यह सोम ओषधि का रस (योनिम्) द्रोणकलश में (आसदत्) आकर स्थित हो गया है ॥द्वितीय—ज्ञानरस के विषय में। (गिरिष्ठाः) वेदवाणी में स्थित, (दक्षः) आत्मबल देनेवाला (अंशुः) ज्ञानरस (मदाय) आनन्द प्राप्त कराने के लिए (अप्सु) विद्यार्थियों के कर्मों में (असावि) अभिषुत किया जाता है। (श्येनः न योनिम्) बाज पक्षी जैसे अपने आवास-वृक्ष पर बैठता है, वैसे ही यह ज्ञानरस (योनिम्) जीवात्मरूप सदन में (आसदत्) आकर स्थित होता है ॥१॥इस मन्त्र में उपमालङ्कार तथा श्लेष है ॥१॥
भावार्थ : कर्मरहित अकेला ज्ञान नीरस और निष्फल होता है ॥१॥
In Sanskrit:
ऋषि : जमदग्निर्भार्गवः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७३ क्रमाङ्के आनन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र सोमौषधिरसविषयो ज्ञानरसविषयश्च वर्ण्यते।
पदपाठ : असावि ।अशुः ।मदाय ।अप्सु ।दक्षः ।गिरिष्ठाः ।गिरि ।स्थाः ।श्येन ।न ।योनिम् ।आ ।असदत्॥
पदार्थ : प्रथमः—सोमौषधिरसविषये। (गिरिष्ठाः) पर्वतेषु उत्पन्नः, (दक्षः) बलप्रदः (अंशुः) सोमौषधिरसः (मदाय) पाने सति उत्साहवर्धनाय (अप्सु) उदकेषु (असावि) अभिषुतोऽस्ति। (श्येनः न योनिम्) श्येनपक्षी यथा स्वनीडम् आगत्य स्थितो भवति, तथा एष सोमौषधिरसः (योनिम्) द्रोणकलशम् (आसदत्) आगत्य स्थितोऽस्ति ॥द्वितीयः—ज्ञानरसविषये। (गिरिष्ठाः) वेदवाचि स्थितः, (दक्षः) आत्मबलप्रदः (अंशुः) ज्ञानरसः (मदाय) आनन्दप्रापणाय (अप्सु) विद्यार्थिनां कर्मसु (असावि) आचार्येण अभिषूयते। (श्येनः न योनिम्) श्येनपक्षी यथा स्वनीडम् आगत्य स्थितो भवति तथा एष ज्ञानरसः (योनिम्) जीवात्मरूपं सदनम् (आसदत्) आगत्य स्थितो भवति ॥१॥अत्रोपमालङ्कारः श्लेषश्च ॥१॥
भावार्थ : कर्मरहितं केवलं ज्ञानं नीरसं निष्फलं च भवति ॥१॥
टिप्पणी:१. ऋ० ९।६२।४, साम० ४७३।