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Samveda/1042

अचिक्रदद्वृषा हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः। स सूर्येण दिद्युते॥१०४२

Veda : Samveda | Mantra No : 1042

In English:

Seer : medhaatithiH kaaNvaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : achikradadvRRiShaa harirmahaanmitro na darshataH . sa.m suuryeNa didyute.1042

Component Words :
achikradat .vRRiShaa .hariH .mahaan .mitraH. mi .traH .na. darshataH .sam.suuryeNa .didyute.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : छठी ऋचा ४९७ क्रमाङ्क पर परमेश्वर के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ बादल के वर्णन द्वारा परमात्मा की महिमा प्रकट की गयी है।

पदपाठ : अचिक्रदत् ।वृषा ।हरिः ।महान् ।मित्रः। मि ।त्रः ।न। दर्शतः ।सम्।सूर्येण ।दिद्युते॥

पदार्थ : परमेश्वर की ही यह महिमा है कि (हरिः) वायु से इधर-उधर ले जाया जाता हुआ, (वृषा) वर्षा करनेवाला बादल (अचिक्रदत्) स्वयं को गरजाता है। (महान्) विशाल वह बादल (मित्रः न) मित्र के समान (दर्शतः) दर्शनीय होता है और वह बादल (सूर्येण) सूर्य द्वारा (सं दिद्युते) भलीभाँति दीप्त होता है, बिजली की छटाओं से भासित होता है ॥६॥यहाँ उपमालङ्कार है ॥६॥

भावार्थ : बादल जब गरजता है, बिजली चमकाता है और बरसता है तब गरमी की धूप से तप्त लोग उसका मित्र के समान स्वागत करते हैं। बादल के जो उपकार हैं, वे वास्तव में परेश्वर के ही उपकार समझने चाहिएँ, क्योंकि वह उसी से सञ्चालित होता है ॥६॥


In Sanskrit:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : षष्ठी ऋक् पूर्वार्चिके ४९७ क्रमाङ्के परमेश्वरविषये व्याख्याता। अत्र पर्जन्यवर्णनमुखेन परमात्ममहिमानं प्रकटयति।

पदपाठ : अचिक्रदत् ।वृषा ।हरिः ।महान् ।मित्रः। मि ।त्रः ।न। दर्शतः ।सम्।सूर्येण ।दिद्युते॥

पदार्थ : परमेश्वरस्यैवायं महिमा यत् (हरिः) वायुना इतस्ततो ह्रियमाणः (वृषाः) वर्षकः पर्जन्यः (मित्रः न) सुहृदिव (दर्शतः) दर्शनीयो भवति। किञ्च स पर्जन्यः (सूर्येण) आदित्यद्वारा (सं दिद्युते) सम्यक् दीप्यते, विद्युच्छटाभिर्भासते ॥६॥अत्रोपमालङ्कारः ॥६॥

भावार्थ : पर्जन्यो यदा गर्जति विद्युतं विद्योतयति वर्षति च तदा ग्रीष्मतापेन तप्ता जनास्तस्य मित्रवत् स्वागतं कुर्वन्ति। पर्जन्यस्य य उपकारास्सन्ति ते वस्तुतः परमेश्वरस्यैवोपकारा मन्तव्यास्तेनैव तस्य सञ्चालितत्वात् ॥६॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।२।६, साम० ४९७।