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Samveda/1064

इम स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया। भद्रा हि नः प्रमतिरस्य ससद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥१०६४

Veda : Samveda | Mantra No : 1064

In English:

Seer : kutsa aa~NgirasaH | Devta : agniH | Metre : jagatii | Tone : niShaadaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : ima.m stomamarhate jaatavedase rathamiva sa.m mahemaa maniiShayaa . bhadraa hi naH pramatirasya sa.m sadyagne sakhye maa riShaamaa vaya.m tava.1064

Component Words :
imam .stomam .arhate .jaatavedase .jaata .vedase .ratham .iva .sam .mahem .maniiShayaa .bhadraa. hi .naH .prabhatiH .pra .matiH .asya. sasadi .sam .sadi .agne. sakhye. sa .khye .maa .riShaam. vayam .tavaa.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : कुत्स आङ्गिरसः | देवता : अग्निः | छन्द : जगती | स्वर : निषादः

विषय : प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ६६ क्रमाङ्क पर परमेश्वरस्तुति के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ आचार्य और शिष्य का विषय वर्णित है।

पदपाठ : इमम् ।स्तोमम् ।अर्हते ।जातवेदसे ।जात ।वेदसे ।रथम् ।इव ।सम् ।महेम् ।मनीषया ।भद्रा। हि ।नः ।प्रभतिः ।प्र ।मतिः ।अस्य। ससदि ।सम् ।सदि ।अग्ने। सख्ये। स ।ख्ये ।मा ।रिषाम्। वयम् ।तवा॥

पदार्थ : हम (अर्हते) सुयोग्य (जातवेदसे) विद्वान् आचार्य के लिए (मनीषया) मनोयोग के साथ (इमं स्तोमम्) इस श्रद्धा-स्तोत्र को (सं महेम) भली-भाँति पहुँचाएँ, (रथम् इव) जैसे रथ को अन्यत्र पहुँचाते हैं। अभिप्राय यह है कि जैसे किसी पूज्य जन को अपने घर लाने के निमित्त उसके लिए सुन्दर रथ भेजते हैं, ऐसे ही आचार्य को अपने प्रति अनुकूल करने के लिए उसके प्रति श्रद्धा-वचन प्रेरित करें। (अस्य) इस विद्वान् आचार्य की (संसदि) सङ्गति में (नः) हमें (भद्रा हि) कल्याणकारी ही (प्रमतिः) श्रेष्ठ विद्या प्राप्त होती है। हे (अग्ने) विद्या, विनय आदि के प्रकाशक आचार्य ! (तव सख्ये) आपके साहचर्य में (वयम्) हम शिष्य (मा रिषाम) अज्ञान, दुराचार आदि से उत्पन्न होनेवाली क्षति को न प्राप्त करें ॥१॥यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थ : विद्वान्, सदाचारी शिक्षणकला में कुशल आचार्य को वर कर उसकी सङ्गति में गुरुकुल में निवास करते हुए विनीत छात्र सुयोग्य और निर्दोष बनते हैं ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : कुत्स आङ्गिरसः | देवता : अग्निः | छन्द : जगती | स्वर : निषादः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ६६ क्रमाङ्के परमेश्वरस्तुतिविषये व्याख्याता। अत्राचार्यशिष्यविषयो वर्ण्यते।

पदपाठ : इमम् ।स्तोमम् ।अर्हते ।जातवेदसे ।जात ।वेदसे ।रथम् ।इव ।सम् ।महेम् ।मनीषया ।भद्रा। हि ।नः ।प्रभतिः ।प्र ।मतिः ।अस्य। ससदि ।सम् ।सदि ।अग्ने। सख्ये। स ।ख्ये ।मा ।रिषाम्। वयम् ।तवा॥

पदार्थ : वयम् (अर्हते) सुयोग्याय (जातवेदसे) विदुषे आचार्याय (मनीषया) मनोयोगेन सह (इमं स्तोमम्) एतत् श्रद्धास्तोत्रम् (सं महेम) सम्यक् प्रापयेम, (रथम् इव) यथा रथम् अन्यत्र प्रापयन्ति तद्वत्। यथा कञ्चित् पूज्यं जनं स्वगृहमानेतुं तस्मै शोभनो रथः प्रेष्यते, तथैवाचार्यमनुकूलयितुं तं प्रति श्रद्धावचांसि प्रेरयेमेति भावः। (अस्य) विदुषः आचार्यस्य (संसदि) संगतौ (नः) अस्मान् (भद्रा हि) कल्याणकरी खलु (प्रमतिः) प्रकृष्टा विद्या प्राप्नोति। हे (अग्ने) विद्याविनयादिप्रकाशक आचार्य ! (तव सख्ये) त्वदीये साहचर्ये (वयम्) शिष्याः (मा रिषाम) अज्ञानकदाचारादिकृतां क्षतिं न प्राप्नुयाम ॥१॥२अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थ : विद्वांसं सदाचारिणं शिक्षणकलाकुशलमाचार्यं वृत्वा तत्संगतौ गुरुकुले निवसन्तो विनीताश्छात्राः सुयोग्या निर्दोषाश्च जायन्ते ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।९४।१, अथ० २०।१३।३, साम० ६६।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वत्पक्षे भौतिकाग्निपक्षे च व्याचष्टे।