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Samveda/1084

रेवतीर्नः सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजाः। क्षुमन्तो याभिर्मदेम॥१०८४

Veda : Samveda | Mantra No : 1084

In English:

Seer : shunaH shepa aajiigartiH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : revatiirnaH sadhamaada indre santu tuvivaajaaH . kShumanto yaabhirmadema.1084

Component Words :
revatiiH .naH .sadhamaade .sadha .maade .indre .santu .tuvivaajaaH. tuvi .vaajaaH .kShumantaH .yaabhiH .madema.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : शुनः शेप आजीगर्तिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १५३ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ योग का विषय कहा जाता है।

पदपाठ : रेवतीः ।नः ।सधमादे ।सध ।मादे ।इन्द्रे ।सन्तु ।तुविवाजाः। तुवि ।वाजाः ।क्षुमन्तः ।याभिः ।मदेम॥

पदार्थ : (सधमादे) जहाँ मन, बुद्धि इन्द्रियाँ आदि सब मिलकर प्रहृष्ट होती हैं, उस योगयज्ञ में (नः) हम उपासकों की (रेवतीः) ऐश्वर्यवती मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा आदि वृत्तियाँ (तुविवाजाः) बहुत बलवती होती हुई (इन्द्रे) जीवात्मा में (सन्तु) विद्यमान होवें (याभिः) जिन वृत्तियों से (क्षुमन्तः) निवासयुक्त होकर हम (मदेम) आनन्दलाभ करें ॥१॥

भावार्थ : प्राणियों के सुखभोगयुक्त होने पर उनके प्रति मैत्री की भावना रखे, दुःखियों के प्रति करुणा की, पुण्यात्माओं के प्रति मुदिता की और अपुण्यशीलों के प्रति उपेक्षा की। इस प्रकार भावना करनेवालों के अन्दर शुक्ल धर्म उत्पन्न हो जाता है। उससे चित्त प्रसादयुक्त होता है और प्रसन्न तथा एकाग्र होकर स्थितिपद को पा लेता है। ये चित्तवृत्तियाँ जब मनुष्य के आत्मा में उद्भूत होती हैं, तब चित्तप्रसाद से वह निवासयुक्त और आनन्दवान् हो जाता है ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : शुनः शेप आजीगर्तिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५३ क्रमाङ्के परमात्मनो नृपस्य च विषये व्याख्याता। अत्र योगविषयो व्याख्यायते।

पदपाठ : रेवतीः ।नः ।सधमादे ।सध ।मादे ।इन्द्रे ।सन्तु ।तुविवाजाः। तुवि ।वाजाः ।क्षुमन्तः ।याभिः ।मदेम॥

पदार्थ : (सधमादे) सह माद्यन्ति मनोबुद्धीन्द्रियादीनि यत्र स सधमादो योगयज्ञः तस्मिन् (नः) उपासकानाम् अस्माकम् (रेवतीः) रयिमत्यः ऐश्वर्यवत्यः मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षावृत्तयः (तुविवाजाः) बहुबलाः सत्यः (इन्द्रे) जीवात्मनि (सन्तु) विद्यमाना भवन्तु, (याभिः) वृत्तिभिः (क्षुमन्तः) निवासवन्तो वयम् [क्षि निवासगत्योः, औणादिको डुः प्रत्ययः।] (मदेम) आनन्देम ॥१॥२

भावार्थ : सर्वप्राणिषु सुखसंभोगापन्नेषु मैत्रीं भावयेत्, दुःखितेषु करुणाम्, पुण्यात्मकेषु मुदिताम्, अपुण्यशीलेषूपेक्षाम्। एवमस्य भावयतः शुक्लो धर्म उपजायते। ततश्च चित्तं प्रसीदति, प्रसन्नमेकाग्रं स्थितिपदं लभते। एताश्चित्तवृत्तयो यदा मनुष्यस्यात्मनि समुद्भवन्ति तदा चित्तप्रसादनेन स निवासवानानन्दवांश्च जायते ॥१॥३

टिप्पणी:१. ऋ० १।३०।१३, अथ०, २०।१२२।१, साम० १५३।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं परमैश्वर्यप्राप्तिविषये व्याख्यातवान्।३. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्त- प्रसादनम्। योग० १।३३।