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Samveda/1085

आ घ त्वावान् त्मना युक्तः स्तोतृभ्यो धृष्णवीयानः। ऋणोउक्षं न चक्रयोः॥१०८५

Veda : Samveda | Mantra No : 1085

In English:

Seer : shunaH shepa aajiigartiH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : aa gha tvaavaa.m tmanaa yuktaH stotRRibhyo dhRRiShNaviiyaanaH . RRiNorakSha.m na chakrayoH. 1085

Component Words :
aa. gha .tvaavaan .tmanaa .yuktaH. stotRRibhyaH.dhRRiShNo .iiyaanaH .RRiNoH .akShama .na .chakrayoH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : शुनः शेप आजीगर्तिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में फिर योग का ही विषय है।

पदपाठ : आ। घ ।त्वावान् ।त्मना ।युक्तः। स्तोतृभ्यः।धृष्णो ।ईयानः ।ऋणोः ।अक्षम ।न ।चक्रयोः॥

पदार्थ : हे (धृष्णो) शत्रु को धर्षण करने के स्वभाववाले परमात्मन् ! (ईयानः) उपासकों से याचना किये हुए, (त्मना युक्तः) आत्मबल से युक्त (त्वावान्) स्वसदृश स्वयमेव आप (घ) निश्चय ही (स्तोतृभ्यः) उपासक योगियों को योगसिद्धि (ऋणोः) प्राप्त कराते हो, (चक्र्योः) दो रथचक्रों के मध्य में (अक्षं न) जैसे धुरी को रथकार प्राप्त कराता है ॥२॥यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थ : जैसे दोनों रथ के पहियों को धुरी की कीली से जोड़ने पर ही पहियों का घूमना और रथ का आगे जाना सम्भव होता है वैसे ही योगी को योगसिद्धि होने पर ही उसका लक्ष्य के प्रति आरोहण और मोक्षलाभ सिद्ध होता है ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : शुनः शेप आजीगर्तिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनरपि योगस्यैव विषयमाह।

पदपाठ : आ। घ ।त्वावान् ।त्मना ।युक्तः। स्तोतृभ्यः।धृष्णो ।ईयानः ।ऋणोः ।अक्षम ।न ।चक्रयोः॥

पदार्थ : हे (धृष्णो) शत्रुधर्षणशील इन्द्र परमात्मन् ! (ईयानः) उपासकैः याच्यमानः। [ईमहे इति याच्ञाकर्मसु पठितम्। निघं० ३।१९।] (त्मना युक्तः) त्मना आत्मना आत्मबलेन युक्तः। [मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। अ० ६।४।१४१ इत्याकारलोपः।] (त्वावान्) त्वादृशः त्वमेव। [वतुप्प्रकरणे युष्मदस्मभ्यां छन्दसि सादृश्य उपसंख्यानम्। अ० ५।२।३९ इत्यत्र स्थितेन वार्तिकेन युष्मच्छब्दात् सादृश्यार्थे वतुप्।] (घ) खलु (स्तोतृभ्यः) उपासकेभ्यो योगिभ्यः, योगसिद्धिम् (ऋणोः) प्रापयसि। [ऋणोतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। अत्र णिगर्भः। लडर्थे लङ्, अडभावश्छान्दसः।] कथमिव ? (चक्र्योः) द्वयोः रथचक्रयोः मध्ये (अक्षं न) धुरं यथा रथकारः प्रापयति तद्वत्। [चक्रिः इत्यत्र कृञ् धातोः ‘आदृगमहनजनः।’ अ० ३।२।१७१। इत्यनेन किः प्रत्ययः] ॥२॥२अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थ : यथोभयो रथचक्रयोरक्षकीलकद्वारा योजनेनैव चक्रयोर्भ्रमणं रथस्याग्रे गमनं च संभवति तथैव योगिनो योगसिद्धिप्राप्त्यैव लक्ष्यारोहणं मोक्षलाभश्च सिध्यति ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।३०।१४, अथ० २०।१२२।२, उभयत्र ‘त्मना॒प्तः’ ‘धृष्णविया॒नः’ इति पाठः।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं राजप्रजाविषये व्याख्यातः।