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Samveda/1086

आ यद्दुवः शतक्रतवा कामं जरितृ़णाम्। ऋणोउक्षं न शचीभिः (ठी)।। [धा. । उ । स्व. ।]॥१०८६

Veda : Samveda | Mantra No : 1086

In English:

Seer : shunaH shepa aajiigartiH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : aa yadduvaH shatakratavaa kaama.m jaritaRRiRRiNaam . RRiNorakSha.m na shachiibhiH.1086

Component Words :
aa .yat .duvaH .shatakrato .shata .krato .aa .kaamam .jaritRRiNaam .RRiNoH .akShama .na .shachiibhiH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : शुनः शेप आजीगर्तिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में जगदीश्वर से प्रार्थना की गयी है।

पदपाठ : आ ।यत् ।दुवः ।शतक्रतो ।शत ।क्रतो ।आ ।कामम् ।जरितृणाम् ।ऋणोः ।अक्षम ।न ।शचीभिः॥

पदार्थ : हे (शतक्रतो) सैकड़ों कर्मों को करनेवाले इन्द्र अर्थात् जगत्पति परमात्मन् ! उपासकों द्वारा आपके प्रति (यत् दुवः) जो पूजन (आ) किया जाता है, उससे प्रेरित आप (जरीतॄणाम्) स्तोताओं के (कामम्) मनोरथ को (आ ऋणोः) पूर्ण करो, रथ बनानेवाला कारीगर (शचीभिः) बुद्धिकौशलों वा कर्मों से (अक्षं न) जैसे रथचक्रों के मध्य में धुरी की कीली की पूर्ति करता है ॥३॥यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ : जैसे रथ के पहियों के मध्य में धुरी की कीली जोड़े बिना रथ की गति नहीं हो सकती, वैसे ही परमात्मा के कृपायोग के बिना स्तोताओं की मनोरथपूर्ति सम्भव नहीं होती ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : शुनः शेप आजीगर्तिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ जगदीश्वरं प्रार्थयते।

पदपाठ : आ ।यत् ।दुवः ।शतक्रतो ।शत ।क्रतो ।आ ।कामम् ।जरितृणाम् ।ऋणोः ।अक्षम ।न ।शचीभिः॥

पदार्थ : हे (शतक्रतो) शतकर्मन् इन्द्र जगत्पते परमात्मन् ! उपासकैः, त्वां प्रति (यत् दुवः) यत् परिचरणम् (आ) आक्रियते, तेन प्रेरितः त्वम् (जरितॄणाम्) स्तोतॄणाम् (कामम्) अभिलषितम् (आ ऋणोः) आ पूरय। कथमिव ? (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिश्च (अक्षं न) रथचक्रयोर्मध्ये (यथा) अक्षकीलकम् आपूरयति रथकारः ॥३॥२अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थ : यथा रथचक्रयोर्मध्येऽक्षकीलकयोजनं विना रथगतिर्न संभवति तथैव परमात्मनः कृपायोगेन विना स्तोतॄणामभिलषितपूर्तिर्न संभवा ॥३॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।३०।१५, अथ० २०।१२२।३।२. ऋग्भाष्ये मन्त्रोऽयं दयानन्दर्षिणा सभापतिविषये व्याख्यातः।