Samveda/1115
प्रवोऽर्चोप (उप प्रक्षे मधुमति क्षियन्तः पुष्येम रयिं धीमहे त इन्द्र) (य)।। [धा. । उ नास्ति । स्व. ।]॥१११५
Veda : Samveda | Mantra No : 1115
In English:
Seer : vaamadevo | Devta : indraH | Metre : dvipadaa viraaT | Tone : pa~nchamaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : upa prakShe madhumati kShiyantaH puShyema rayi.m dhiimahe ta indra.1115
Component Words : upa .prakShe. pra. kShe .madhumati. kShiyantaH. puShyema .rayim .dhiimahe. te .indra.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : वामदेवो | देवता : इन्द्रः | छन्द : द्विपदा विराट् | स्वर : पञ्चमः
विषय : तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में ४४४ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ गुरु-शिष्य का और राजा-प्रजा का विषय वर्णित है।
पदपाठ : उप ।प्रक्षे। प्र। क्षे ।मधुमति। क्षियन्तः। पुष्येम ।रयिम् ।धीमहे। ते ।इन्द्र॥
पदार्थ : हे (इन्द्र) विद्वन् आचार्य वा परमैश्वर्यशाली वीर श्रेष्ठ राजन् ! हम (ते) आपको (धीमहे) आचार्य के पद वा राजा के पद पर प्रतिष्ठित करते हैं। (तव) आपके (मधुमति) मधुर (प्रक्षे) ज्ञान के झरने में वा ऐश्वर्य के झरने में (उप क्षियन्तः) निवास करते हुए, हम (रयिम्) विद्याधन को वा सुवर्ण, वस्त्र, आभूषण आदि धन को (पुष्येम) पुष्ट रूप से प्राप्त करें ॥३॥
भावार्थ : आचार्य के पद पर वा राजा के पद पर यदि सुयोग्य विद्वान् पुरुष प्रतिष्ठापित किया जाए, तो वह सब शिष्यों वा प्रजाजनों को विद्वान् वा धनपति कर सकता है ॥३॥इस खण्ड में अध्यात्म और अधिराष्ट्र तथा गुरु-शिष्य और राजा-प्रजा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥सप्तम अध्याय में सप्तम खण्ड समाप्त ॥ सप्तम अध्याय समाप्त ॥ चतुर्थ प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥
In Sanskrit:
ऋषि : वामदेवो | देवता : इन्द्रः | छन्द : द्विपदा विराट् | स्वर : पञ्चमः
विषय : तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके ४४४ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषये राजप्रजाविषये च वर्ण्यते।
पदपाठ : उप ।प्रक्षे। प्र। क्षे ।मधुमति। क्षियन्तः। पुष्येम ।रयिम् ।धीमहे। ते ।इन्द्र॥
पदार्थ : हे (इन्द्र) विद्वन् आचार्य परमैश्वर्यवन् वीर राजेन्द्र वा ! वयं (ते) त्वाम् (धीमहे) आचार्यपदे राजपदे वा प्रतिष्ठापयामः। तव (मधुमति) मधुरे (प्रक्षे) ज्ञाननिर्झरे ऐश्वर्यनिर्झरे वा (उप क्षियन्तः) निवसन्तः वयम् (रयिम्) विद्याधनम् सुवर्णवस्त्रालङ्कारादिधनं वा (पुष्येम) पुष्टतया प्राप्नुयाम ॥३॥
भावार्थ : आचार्यपदे नृपतिपदे वा सुयोग्यो विद्वान् पुरुषश्चेत् प्रतिष्ठाप्यते तर्हि स सर्वान् शिष्यान् प्रजाजनांश्च विदुषो धनाधीशांश्च कर्तुं पारयति ॥३॥अस्मिन् खण्डेऽध्यात्माधिराष्ट्रयोर्गुरुशिष्यराजप्रजयोश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥
टिप्पणी:१. साम० ४४४।