Donation Appeal
Choose Mantra
Samveda/1119

प्र स्वानासो रथा इवार्वन्तो न श्रवस्यवः। सोमासो राये अक्रमुः॥१११९

Veda : Samveda | Mantra No : 1119

In English:

Seer : asitaH kaashyapo devalo vaa | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : pra svaanaaso rathaa ivaarvanto na shravasyavaH . somaaso raaye akramuH.1119

Component Words :
pra .svaanaasaH. rathaaH. iva .arvantaH .na .shravasyavaH .somaasaH .raaye .akramuH.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : असितः काश्यपो देवलो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में गुरुओं का वर्णन है।

पदपाठ : प्र ।स्वानासः। रथाः। इव ।अर्वन्तः ।न ।श्रवस्यवः ।सोमासः ।राये ।अक्रमुः॥

पदार्थ : (सोमासः) विद्वान् गुरु लोग (रथाः इव) रथों के समान (स्वानासः) शब्द करनेवाले और (अर्वन्तः इव) आक्रमणकारी योद्धाओं के समान (श्रवस्यवः) कीर्ति के इच्छुक होते हुए (राये) विद्यारूप ऐश्वर्य के लिए अर्थात् राष्ट्र में विद्यारूप ऐश्वर्य उत्पन्न करने के लिए (प्र अक्रमुः) उद्योग करते हैं ॥४॥यहाँ उपमालङ्कार है ॥४॥

भावार्थ : जैसे सड़क पर चलते हुए रथ शब्द करते हैं, वैसे ही गुरुजन पढ़ाते समय भाषण करते हैं। जैसे युद्ध करने में उद्भट योद्धागण विजय की कीर्ति चाहते हैं, वैसे ही गुरु लोग राष्ट्र में सुयोग्य विद्वानों को उत्पन्न करके उनसे प्राप्त होनेवाली कीर्ति की कामना करते हैं ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : असितः काश्यपो देवलो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ गुरून् वर्णयति।

पदपाठ : प्र ।स्वानासः। रथाः। इव ।अर्वन्तः ।न ।श्रवस्यवः ।सोमासः ।राये ।अक्रमुः॥

पदार्थ : (सोमासः) विद्वांसो गुरवः (रथाः इव) स्यन्दना इव (स्वानासः) शब्दान् कुर्वन्तः (अर्वन्तः इव) आक्रान्तारो योद्धारः इव (श्रवस्यवः) कीर्तिकामाः सन्तः (राये) विद्यैश्वर्याय, राष्ट्रे विद्यारूपमैश्वर्यं जनयितुमित्यर्थः प्र (अक्रमुः) उद्युञ्जते ॥४॥अत्रोपमालङ्कारः ॥४॥

भावार्थ : यथा मार्गे चलन्तो रथाः शब्दायन्ते तथा विद्वांसो गुरुजना अध्यापनकाले भाषन्ते। यथा रणोद्भटा योद्धारो विजयकीर्तिं कामयन्ते तथा गुरवो राष्ट्रे सुयोग्यान् विदुष उत्पाद्य तज्जनितां कीर्तिमभिलषन्ति ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।१०।१।