Donation Appeal
Choose Mantra
Samveda/1172

यदिन्द्र चित्र म इह नास्ति त्वादातमद्रिवः। राधस्तन्नो विदद्वस उभयाहस्त्या भर॥११७२

Veda : Samveda | Mantra No : 1172

In English:

Seer : atrirbhaumaH | Devta : indraH | Metre : anuShTup | Tone : gaandhaaraH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : yadindra chitra ma iha naasti tvaadaatamadrivaH . raadhastanno vidadvasa ubhayaahastyaa bhara.1172

Component Words :
yat. indra .chitra. me. iha. na .asti .tvaadaatam .tvaa .daatam .adrivaH .a. drivaH .raadhaH. tat .naH .vidadvase .vidat .vaso .ubhayaahasti .aa .bhara.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : अत्रिर्भौमः | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३४५ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में की गयी थी। यहाँ परमात्मा और आचार्य का विषय दर्शाया जा रहा है।

पदपाठ : यत्। इन्द्र ।चित्र। मे। इह। न ।अस्ति ।त्वादातम् ।त्वा ।दातम् ।अद्रिवः ।अ। द्रिवः ।राधः। तत् ।नः ।विदद्वसे ।विदत् ।वसो ।उभयाहस्ति ।आ ।भर॥

पदार्थ : हे (चित्र) अद्भुत, (अद्रिवः) अविनष्ट गुणोंवाले (विदद्वसो) प्राप्त ऐश्वर्यवाले (इन्द्र) जगदीश्वर वा आचार्य ! (त्वादातम्) आपसे शोधित (यत् राधः) जो आत्मबल, धर्म, विद्या आदि का धन (मे) मेरे पास (इह) यहाँ (न अस्ति) नहीं है, (तत्) वह धन, आप (उभयाहस्ति) जैसे दोनों हाथों से किसी को दिया जाता है, वैसे (नः) हमें (आ भर) दीजिए ॥१॥

भावार्थ : परमेश्वर और आचार्य की कृपा से शुद्ध दिव्य और भौतिक धन के हम अधिपति हो जाएँ ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : अत्रिर्भौमः | देवता : इन्द्रः | छन्द : अनुष्टुप् | स्वर : गान्धारः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३४५ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र परमात्मन आचार्यस्य च विषयो निरूप्यते।

पदपाठ : यत्। इन्द्र ।चित्र। मे। इह। न ।अस्ति ।त्वादातम् ।त्वा ।दातम् ।अद्रिवः ।अ। द्रिवः ।राधः। तत् ।नः ।विदद्वसे ।विदत् ।वसो ।उभयाहस्ति ।आ ।भर॥

पदार्थ : हे (चित्र) अद्भुत, (अद्रिवः) अविदीर्णगुण। [न केनापि दीर्यते यस्तत्सम्बुद्धौ।] (विदद्वसो) लब्धधन (इन्द्र) जगदीश आचार्य वा ! (त्वादातम्) त्वया शोधितम्। [दातम् दैप् शोधने, निष्ठा।] (यत् राधः) यद् आत्मबलधर्मविद्यादिधनम् (मे) मम (इह) अत्र (न अस्ति) न विद्यते, (तत्) धनम् त्वम् (उभयाहस्ति) उभाभ्यां हस्ताभ्यां यथा कस्मैचिद् दीयते तथा (नः) अस्मभ्यम् (आ भर) आहर ॥१॥२यास्काचार्येण मन्त्रोऽयं निरुक्ते ४।४ इत्यत्र व्याख्यातः।

भावार्थ : परमेशस्याचार्यस्य च कृपया शुद्धस्य भौतिकस्य च धनस्य वयमधिपतयः स्याम ॥१॥परमेश्वर और आचार्य की कृपा से शुद्ध दिव्य और भौतिक धन के हम अधिपति हो जाएँ ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० ५।३९।१, ‘मे॒हनास्ति॒’ इति भेदः। साम० ३४५।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं राजप्रजापक्षे व्याचष्टे।