Samveda/1244
प्रेष्ठं वो अतिर्थि स्तुषे मित्रमिव प्रियम्। अग्ने रथं न वेद्यम्॥१२४४
Veda : Samveda | Mantra No : 1244
In English:
Seer : ushanaa kaavyaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : preShTha.m vo atirthi.m stuShe mitramiva priyam . agne ratha.m na vedyam.1244
Component Words : preShTham. vaH .atithim. stuShe. mitram .mi .tram .iva .priyam .agne .ratham .na .vaidyam .
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : उशना काव्यः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५ क्रमाङ्क पर परमात्मा की स्तुति के विषय में की जा चुकी है। यहाँ परमात्मा और राजा दोनों का विषय दर्शाते हैं।
पदपाठ : प्रेष्ठम्। वः ।अतिथिम्। स्तुषे। मित्रम् ।मि ।त्रम् ।इव ।प्रियम् ।अग्ने ।रथम् ।न ।वैद्यम् ॥
पदार्थ : हे (अग्ने) जग के नेता परमात्मन् वा राष्ट्र के नेता राजन् ! (प्रेष्ठम्) अतिशय प्रिय, (अतिथिम्) अतिथि के समान सत्कार-योग्य, (मित्रम् इव) मित्र के समान (प्रियम्) तृप्तिप्रदाता और (रथं न) रथ के समान (वेद्यम्) प्राप्तव्य (वः) आपकी मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ अर्थात् आपके गुणों का वर्णन करता हूँ ॥१॥यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ : जैसे लोग परमात्मा की पूजा करें, वैसे ही राजा का भी सत्कार करें और जैसे परमात्मा लोगों को तृप्ति देता है, वैसे ही राजा भी प्रजाओं को तृप्त करे ॥१॥
In Sanskrit:
ऋषि : उशना काव्यः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५ क्रमाङ्के परमात्मस्तुतिविषये व्याख्याता। अत्र परमात्मनृपत्योरुभयोर्विषय उच्यते।
पदपाठ : प्रेष्ठम्। वः ।अतिथिम्। स्तुषे। मित्रम् ।मि ।त्रम् ।इव ।प्रियम् ।अग्ने ।रथम् ।न ।वैद्यम् ॥
पदार्थ : हे (अग्ने) जगन्नायक परमात्मन् राष्ट्रनायक राजन् वा ! (प्रेष्ठम्) प्रियतमम्, (अतिथिम्) अतिथिवत् सत्करणीयम्, (मित्रम् इव) सखायमिव (प्रियम्) प्रीणयितारम्, (रथं न) रथमिव (वेद्यम्) प्राप्तव्यम् (वः) त्वाम्, अहम् (स्तुषे) स्तौमि, तव गुणान् वर्णयामीत्यर्थः ॥१॥अत्रोपमाङ्कारः ॥१॥
भावार्थ : यथा जनाः परमात्मानं पूजयेयुस्तथा राजानमपि सत्कुर्युः। यथा च परमात्मा जनान् प्रीणयति तथा राजापि प्रजाः प्रीणयेत् ॥१॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।८४।१, ‘अग्ने’ इत्यत्र ‘अ॒ग्निं’ इति। साम० ५।