Donation Appeal
Choose Mantra
Samveda/1364

पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः। द्विषस्तरध्या ऋणया न ईरसे॥१३६४

Veda : Samveda | Mantra No : 1364

In English:

Seer : yaruNastraivRRiShNaH trasadasyuH paurukutsy | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : pipiilikaa madhyaa anuShTup | Tone : gaandhaaraH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : paryuu Shu pra dhanva vaajasaataye pari vRRitraaNi sakShaNiH . dviShastaradhyaa RRiNayaa na iirase.1364

Component Words :
pari . uu . su . pra . dhanva . vaajasaataye . vaaja . saataye . pari . vRRitraaNi . sakShaNiH . sa . kShaNiH . dviShaH . taradhyai . RRiNayaaH . RRiNa . yaaH . naH . iirase.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : यरुणस्त्रैवृष्णः त्रसदस्युः पौरुकुत्स्य | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : पिपीलिका मध्या अनुष्टुप | स्वर : गान्धारः

विषय : प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४२८ क्रमाङ्क पर अपने अन्तरात्मा और वीर पुरुष के प्रोत्साहन के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ परमात्मा का विषय कहते हैं।

पदपाठ : परि । ऊ । सु । प्र । धन्व । वाजसातये । वाज । सातये । परि । वृत्राणि । सक्षणिः । स । क्षणिः । द्विषः । तरध्यै । ऋणयाः । ऋण । याः । नः । ईरसे॥

पदार्थ : हे पवमान सोम अर्थात् पवित्र करनेवाले जगत्स्रष्टा परमात्मन् ! आप (वाजसातये) बल देने के लिए, हमें (सु) भली-भाँति (परि प्र धन्व) चारों ओर से प्राप्त होओ। (सक्षणिः) विघ्नों के विनाशक आप (वृत्राणि) जीवनमार्ग वा योगमार्ग में आये हुए विघ्नों पर (परि प्र धन्व) चारों ओर से आक्रमण कर दो। (ऋणयाः) हमारे ऋषिऋण-देवऋण-पितृऋण को तथा अन्य ऋणों को चुकवानेवाले आप (द्विषः) द्वेषवृत्तियों को (तरध्यै) परास्त करने के लिए (नः ईरसे) हमें प्राप्त होवो।तैत्तिरीयसंहिता में तीन ऋण गिनाते हुए कहा गया है कि उत्पन्न होता हुआ ब्राह्मण तीन ऋणों से ऋणी होता है। ऋषियों के प्रति ब्रह्मचर्य से, देवों के प्रति यज्ञ से और पितृजनों के प्रति प्रजा से। जब वह आचार्याधीन ब्रह्मचर्यवास करता है, यज्ञ करता है और पुत्रवान् हो जाता है तब क्रमशः इन ऋणों से छूट जाता है (तै० सं० ६।३।१०।५) ॥१॥

भावार्थ : मनुष्य दूसरों की सहायता का उपयोग करके उनके प्रति ऋणी हो जाता है। माता-पिता, गुरुजन, समाज, राष्ट्र तथा अन्यों के प्रति उसके जो ऋण होते हैं, उन्हें परमेश्वर की प्रेरणा से वह उपकारस्मरणपूर्वक सधन्यवाद चुका देता है ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : यरुणस्त्रैवृष्णः त्रसदस्युः पौरुकुत्स्य | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : पिपीलिका मध्या अनुष्टुप | स्वर : गान्धारः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४२८ क्रमाङ्के स्वान्तरात्मनो वीरपुरुषस्य च विषये व्याख्याता। अत्र परमात्मविषय उच्यते।

पदपाठ : परि । ऊ । सु । प्र । धन्व । वाजसातये । वाज । सातये । परि । वृत्राणि । सक्षणिः । स । क्षणिः । द्विषः । तरध्यै । ऋणयाः । ऋण । याः । नः । ईरसे॥

पदार्थ : हे पवमान सोम पवित्रकारिन् जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! त्वम् (वाजसातये) बलप्रदानाय, अस्मान् (सु) सम्यक् (परि प्र धन्व उ) परिप्राप्नुहि खलु, (सक्षणिः) विघ्नविनाशकः त्वम् (वृत्राणि) जीवनमार्गे योगमार्गे वा समागतान् विघ्नान् (परि प्र धन्व) परितः आक्रामस्व। (ऋणयाः) अस्माकं ऋषिऋण-देवऋण-पितृऋणानाम् अन्येषां च ऋणानां यापयिता त्वम् (द्विषः) द्वेषवृत्तीः (तरध्यै) तरीतुम् (नः ईरसे) अस्मान् प्राप्नुहि ॥ऋणानि च त्रीणि यथा—[जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणैर्ऋणवान् जायते। ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो, यज्ञेन देवेभ्यः, प्रजया पितृभ्यः, एष वा अनृणो यः पुत्री यज्वा ब्रह्मचारिवासी (तै० सं० ६।३।१०।५।)] इति ॥१॥

भावार्थ : मनुष्योऽन्येषां सहायतामुपयुज्य तान् प्रति ऋणवान् जायते। मातापितरौ गुरून् समाजं राष्ट्रमन्यांश्च प्रति तस्य यानि ऋणानि भवन्ति तानि परमेश्वरप्रेरणया स सोपकारस्मरणं सधन्यवादं यापयति ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।११०।१, अथ० ५।६।४, साम० ४२८।